यात्रावृतांत

मसाईमारा के जंगल

यात्रावृतांत                                                           

 शिवमूर्ति

    जंगल के प्रति मेरा आकर्षण बचपन से रहा है। शायद इसका कारण बचपन में सुनी गयी वे कहानियां और गीत हैं जिनमें जंगल बार-बार आता है। किसी राजकुमार को देश निकाला होता था तो वह जंगल की राह पकड़ता था। राम और पॉडव जंगल-जगल भटके थे। कोई राजा अपनी रानी से नाराज हो जाता था तो या तो वह महल के बाहर कउआ हकनी बन कर गुजारा करती थी या जंगल में चली जाती थी।

एक बन गइली, दूसरे बन गइली, तिसरे बन ना!

मिले गोरू चरवहवा तिसरे बन ना!!

    तीसरे वन में जाते-जाते चरवाहे मिल जाते थे। वे रानी के दुख से दुखी होते थे। भूखी प्यासी रानी को दूध पिलाते थे।

        मां करूण स्वर में गातीं थीं- बन का निकरि गये रघुराई। तो मन द्रवित हो जाता था। मामा के घर जाते समय रास्ते में लम्बी बबुराही मिलती थी। मन करता था कि यहीं बबूलों की छांव में जिन्दगी गुजार दें।

        रामचरित मानस में राजा प्रतापभानु के जंगल में भटक जाने की क्षेपक कथा है। षिकार करते-करते राजा गहन वन में भटक कर भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं।

        तुलसीदास जी ने ऐसे ही घने जंगल के बारे में लिखा है- सूझि परइ नहिं पंथ। यह सब जंगल देखने को प्रेरित करते थे।

        दर्जा तीन में धु्रव की कहानी पढ़ी। ध्रुव की तरह अटल पद प्राप्त करने के लिए मैंने और मेरे सहपाठी रामसुख सिंह ने जंगल में जाकर तपस्या करने का निष्चय किया। चार बजे स्कूल की छुट्टी हुयी तो हम दोनों लोग कंधे पर बस्ता टांगे सड़क पकड़ कर उत्तर की ओर चले। चलते-चलते अंधेरा होने लगा तो रामसुख सिंह रुक गये। बोले- मुझे मां की याद आ रही है। मेरे बिना मेरी मां रो-रो कर मर जायेगी।

        मां की याद मुझे भी आ रही थी। अंधेरे के चलते डर भी लगने लगा था। हम लौट पडे़। जंगल देखने की मेरी इच्छा अतृप्त रह गयी।

        मेरे घर के पश्चिम सड़क पार जंगल था। (काफी कुछ अब भी बचा है।) सगरे के उत्तर और महामाई के विशाल बटवृक्षों से लेकर गोंसाई की मठिया के दक्षिण तक। इसी के बीच बीरनतारा नाम का ताल है। ताल के चारो तरफ रुसहनी, बंसवारी, अमराई और कटीली झाडि़यों का घटाटोप। बचपन में जब शिकार कथाएं पढ़ता तो कल्पना करता कि कहानी का शेर इन्हीं झाड़ियों में छिपा बैठा है।

        मेरे पड़ोसी बिलगू इन्हीं झाड़ियों में अपनी प्रेमिका से मिलने जाते थे। एक बार मैंने भी उनका संदेश उस तक पहुंचाया था- बिलगू भइया बकाइन के पेड़ के नीचे तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं।

        -करने दो। उसने बनावटी गुस्से से कहा था। फिर तुरंत ही बरजा था- किसी और से न कह देना। और चल पड़ी थीं। वह इस दुनिया से बहुत जल्दी चली गयीं लेकिन जब तक रहीं मेरा एहसान मानती रहीं। वह बकाइन का पेड़ आज भी ताल के उत्तर-पश्चिम भीटे पर खड़ा है।

        बिलगू भइया की शादी नहीं हुई थी। खोजते-खोजते एक युवती पटी। उसे भगा लाये। भगा क्या लाये वह खुद ही भाग आयी। सावन का महीना था। मेरी मां घर के सामने के खेत में धान निरा रहीं थीं। वह पूरब से, खेतों के बीच से आयी और मेंड पर रुक कर मेरी मां से पूछा- भगत का घर कौन है?

        -यही सामने। कहां से आ रही हो?

        लेकिन वह कुछ बोली नहीं। चल पड़ी।

        यह कौन है जो मेरे घर का पता पूछ रही है और मुझे पहचानती नहीं। वे उसके पीछे-पीछे चलीं। दुआर पर आकर दोनों लोग आमने-सामने हुयीं। वह बोली- हमें यहीं आने के लिए उन्होंने कहा है।

        तब तक दादा, शंकर भगवान को चढ़ाने के लिए लोटे में जल लेकर आये। देख कर पूछा- बिलगू की मेहमान हो? उसने स्वीकार में सिर हिलाया।

        दादा ने मां से कहा- माई के घर में छिपा लो। कोई देख न ले। पानी दाना दे दो। भूखी-प्यासी होगी।

        उस लड़की के भाई को बिलगू पर सन्देह हो गया था। वह एक दो लोगों के साथ समय-कुसमय बिलगू के धर के चक्कर लगाता कि यहां होगी तो दिशा मैदान के लिए सुबह शाम निकलेगी ही। लेकिन पता नहीं लगा सका। वह तो मेरी अइया के खाली घर में छिपी थी। महीने भर छिपी रही। देर रात बिलगू मिठाई और पान-सुपारी लेकर उसके पास आते और भोर होते ही निकल जाते।

        मैं ही दोनों जून उसके लिये खाने की थाली लेकर जाता। बाद में जब और समझदार हुआ तथा खजुराहो की नारी मूर्तियों से परिचित हुआ तो जाना कि वह तो साक्षात खजुराहो की ही नारी थी। वही आंखें, वही मुस्कान, वैसे ही पयोधर, वैसी ही कटि, वैसे ही नितम्ब। मामला ठंडा होने के बाद बिलगू उसे अपने घर ले गये। भात पांत दिया। सुख से रहने लगे। तबतक युवती के भाई को पता चल गया। उसने कहा- बिलगू ने मेरी इज्जत पर डाका डाला है। मेरी मरजी के बगैर मेरी बहन को भगा लाये हैं इसिलए बहन को इनके घर नहीं रहने दूंगा। और जहां जाना चाहेगी विदा कर दूंगा।

        बिलगू घबराये। रात दिन का पहरा बैठा दिया लेकिन सब बेकार। दोनों लोगों के बीच किसी तीसरे जीव के आने के पहले ही एक दिन अचानक वह गायब हो गयी। बिलगू बावलों की तरह उसे चारो तरफ खोजने लगे। उसकी चर्चा होते ही रो पड़ते। राम जी क्या रोये होंगे सीताहरण के बाद, जैसा बिलगू रोते थे।

        यह बिलगू को दूसरा झटका था। पहला झटका पांच छः साल पहले लगा था जब एक ठग ने उनसे मोटी रकम लेकर एक कमसिन लड़के को लड़की के कपडे़ पहना कर उनके साथ विदा कर दिया था। उस धोखे का उल्लेख मैंने अपनी कहानी ‘तिरिया चरित्तर‘ में किया है। महीने डेढ़ महीने की दौड़ धूप के बाद उन्होंने पता लगाया कि वह कस्बे के एक मुहल्ले में गयी है। उन्होंने मुझसे कहा- शिवमूरत भाय, मेरी मदद करिए। मुझे उसके घर के पास ले गये और बोले- इस समय वह घर में अकेली होगी। तुम जाकर उसे बताओ कि मैं यहां खड़ा हूं। आकर मुझसे मिले। और अगर आने को तैयार न हो तो यह पूछ लेना कि तुम अपने मन से यहां आयी हो या जबरदस्ती लाया गया है।

        -और अगर वहां कोई दूसरा मिल जाय और पूछे कि यहां क्यों घूम रहे हो?

        -तो कह देना कि यहां पढ़ते हैं। किराये का कमरा खोज रहे हैं।

        उस साल से मैं नाइन्थ में पढ़ने के लिए कस्बे में जाने लगा था। मैं गया। आस-पास सन्नाटा था। मैंने बंद किवाड़ की सांकल खट-खटायी।

        वही निकली। मैंने कहा- भौजी...

        -कैसी भउजी रे? उसकी आंखों से लपट निकलने लगी- तू कौन है?

        भाग जा नहीं तो काट कर गभड़िया नाले में फेंक दिया जायेगा।

        खजुराहो की नारी का ऐसा रूप! पहचान का कोई चिन्ह नहीं। मैं दहल गया। मुड़कर भागा। मेरे पीछे धड़ाम से दरवाजा बंद हो गया।

        सुन कर बिलगू उदास हो गये। थोड़ी देर तक चुप रह गये फिर कहा- अच्छा जाकर उससे कहो कि मेरे गहने तो वापस कर दे। लेकिन दुबारा जाने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। दुबारा गया लेकिन तीन साल बाद जब इन्टर की वार्षिक परीक्षा देने के लिए मुझे सचमुच कमरे की जरूरत पड़ी। मैं कमरा खोजते-खोजते उसके दरवाजे पर पहुंचा तो वह...

        मेरे साथ यही गड़बड़ है। कहां की बात कहां पहुंच जाती है।

        तो मेरे गांव के इस जंगल ने भी मेरे मन में जंगल के प्रति आकर्षण पैदा किया होगा। मसाईमारा जंगल के रोमांच के बारे में मैं पहले भी पढ़ चुका था। इसलिए जब इसकी यात्रा का संयोग बना तो मैं तुरंत तैयार हो गया।

        मसाईमारा का जंगल केन्या के दक्षिण पश्चिम में 1510 कि.मी. के क्षेत्र में फैला है और यदि तंजानिया के सेरेन्गेटि नेशनल पार्क का क्षेत्रफल भी मिला दिया जाय जो आपस में जुड़ा है तो इस भूभाग पर फैले इस जंगल का क्षेत्रफल करीब पचीस हजार वर्ग कि.मी. हो जाता है।

        केन्या के पहले हम दक्षिण अफ्रीका के भ्रमण पर थे। वहां जोहान्सवर्ग के एअर पोर्ट से हमें केन्या एअरवेज की फ्लाइट से नैरोबी के लिए उड़ना था। जोहान्सवर्ग में चेक-इन के बाद लाउंज में बैठे थे तो काले मूल की घुघराले बालों और चिकने चेहरे वाली पचास-पचपन की एक हंसमुख महिला मेरी पत्‍नी की बगल की खाली कुर्सी पर आकर बैठी और उनसे पूछा- इंडियन?

        फिर पत्‍नी के लम्बे बालो को हाथ में लेकर तनिक खींचते और मुस्कराते हुए पूछा- आर दीज रियल? 

        -आफ कोर्स। 

        -हवाट अ वंडर। वह खिलखिलायी। Once I was in Delhi.

        जोहान्सवर्ग से 31 मई 2013 को सबेरे 10ः55 की फ्लाइट से हम नैरोबी के लिए उड़े।

        नैरोबी एअर पोर्ट जोहान्सवर्ग की तुलना में बहुत छोटा है। लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे जैसा। बाहर हमारे स्वागत के लिए कत्थई रंग की मोटे स्टील बाडी की लम्बी सफारी कारें थीं। इनमें बैठकर हम 21 की.मी. दूर होटल इन्टरनेशनल की ओर चले। सड़क पर जाम इतना कि कानपुर के रामादेवी या बनारस के गोदौलिया चौराहे को मात करे।

        सड़क की हालत जर्जर थी, दोनों तरफ के मकानों में एकाध बहुत अच्छे, एकाध बहुत जर्जर, ट्रैफिक का नियम न मानने वाली भीड़। कपडे़ लत्ते की गुणवत्ता से अभाव का अभास। एक सफेद दाढ़ी वाले बूढे़ सरदार जी हाथ में छोटा सा टिन का टिफिन झुलाते थके मादे सड़क की पटरी के किनारे-किराने चलते हुए ड्यूटी से लौट रहे थे। एअरपोर्ट से 03:30 बजे चले थे और 06:00 बजे होटल पहुंचे। होटल छावनी बना हुआ था। सुरक्षा कर्मियों की भीड़, सघन जांच, भय का माहौल। एक-दो दिन पहले वहां आतंकी हमला हुआ था।

        एक खास बात। इस होटल में डिनर तो बहुत शानदार था। वेज, नानवेज, सी फूड, फल, आइसक्रीम आदि लेकिन खाने के साथ पीने के लिए पानी देने का रिवाज नहीं है। पानी पीना है तो खरीद कर पीजिए। होटल के कमरे में भी प्रति व्यक्ति आधे लीटर पानी की बोतल मिली। बाथटब में पांच सौ लीटर पानी का प्रयोग करिए, टायलेट में करिए। कोई सीमा नहीं। लेकिन पीने के लिए...

        नैरोबी से रिजर्वफारेस्ट के ऑफिस की दूरी 260 की.मी. है। नास्ता करके हम मसाईमारा रिजर्व फारेस्ट के लिए सबेरे 07:00 बजे निकले। और रास्ते में दो जगह चाय पीते हुए 01:30 पहुंचे। सात बड़ी सफारी गाड़ियों में 31 या 32 लोग। ज्यादातर दक्षिण भारत से आये डाक्टर जिन्‍हें किसी दवा कंपनी ने स्पांसर किया था। एक डाक्टर दम्पत्ति लखनऊ के, एक हल्द्वानी के, एक दक्षिण के बैंक मैनेजर।

        मेरे सफारी वाहन का नम्बर था- KAV208V तथा ड्राइवर का नाम स्टीफेन। वह सफेद घुंघराले बालों, काले रंग चिकने चमकते चेहरे और गठीले शरीर का पचास वर्षीय मृद्भाषी व्यक्ति था। उसने अपना परिचय दिया। बताया कि वह नैरोबी से 160 की.मी. उत्तर का रहने वाला है और ‘कि कु यु‘ मूल का है। वह सफारी ट्रेल्स नाम की ट्रान्सपोर्ट कम्पनी का ड्रायवर है। इस कम्पनी का मालिक 35 वर्ष का राजे नाम का मोना सिख है। कम्पनी के पास 70 सफारी हैं और मसाईमारा जंगल की यात्रा कराने के लिए प्रयोग में आती हैं। उसने यह भी बताया कि दो शब्दों का मतलब जान लेने से यहां आपका काम चल जायेगा। एक है- ‘KARIBU’ जिसका मतलब ‘WELCOM’ और दूसरा है- ‘SAVA SAVA’ मतलब ‘OK’। स्टीफेन ड्राइबर के साथ-साथ गाइड का काम भी कर रहा था। उसने बताया कि केन्या के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मूल की जातियां निवास करती हैं। इस दक्षिणी हिस्से में मसाई जाति रहती है जो पशुपालन पर निर्भर है क्योंकि पानी न बरसने या कम बरसने के कारण खेती पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। जिसके पास जितना ज्यादा जानवर वह उतना बड़ा आदमी।

        नैरोबी से शुरूआत का 120 कि.मी. का रास्ता ऊंची-नीची पहाड़ियों के बीच से होकर जाता है। सड़क पक्की और सर्पिल है। पेड़ हरे-भरे और ऊंचे हैं। फिर मैदानी क्षेत्र आ जाता है। पेड़ और झाड़ियां छोटी होती जाती हैं। आगे 50-60 कि.मी. का क्षेत्र अर्ध रेगिस्तान है। छोटे बाजारों में लाल पीले रंग की चेक या छींट की ओढ़नी ओढे़ मसाई स्त्रियां और उसी चेक के कपडे़ को गॉती की तरह गले में बांधे घुटनों तक लटकाते मसाई पुरूष। मसाई लोग लम्बे, पतले, काले, घुंघराले बाल और बलिष्ट शरीर वाले थे। राह में मिलने वाले मकान लगभग सभी एक मंजिले, धूसर, बिना प्लास्टर की दिवारें, ज्यादातर टिन की छाजन वाले। गरीबी मुंह बाये खड़ी थी। और आगे बढ़ने पर छोटे-छोटे नाले और भरके मिलने शुरू हुए। गायों और भेड़ों के झुंड। एक एक झुंड में तीन चार सौ गायें। कच्ची सड़क आने के बाद हिरनों के झुंड, जेब्रा और बाइल्ड बीस्ट के झुंड भी। एक बार डिस्कबरी चैनल पर तंजानिया की किसी चौड़ी नदी को पार करते हजारो की संख्या में बाइल्ड बीस्ट का झुंड देखा था। बताया गया था कि अच्छे चारे और पानी की तलास में ए जानवर हर साल कई हजार कि.मी. की यात्रा करते हैं। उन्हें यहां आज साक्षात देख रहा था। सब चरने-खाने में मस्त थे।

        कहीं-कहीं खेत मिल रहे थे। एक खेत में मक्का बोया गया था। एक खेत में बोये गेहूं में बालियां निकल आयी थीं। डेढ़-दो फीट ऊंचे पौधे।

        -ए सिंचाई कैसे करते हैं?

स्टीफेन

        स्टीफेन ने बताया कि ज्यादातर फसल वर्षा पर निर्भर रहती है।

        आगे एक जगह स्प्रिंकल विधि से सिंचाई होती दिखी। खेत के पास पटरी पर एक गाड़ी खड़ी थी जिसका आगे का आधा भाग बैठने के लिए और पीछे का आधा भाग सामान रखने के लिए बनाया गया था। एक आदमी पीठ पर छिड़काव की मशीन लादे किसी दवा या फर्टिलाइजर का छिड़काव कर रहा था। खेत में सब्जी जैसी कोई फसल खड़ी थी। मक्का बहुतायत में था। ऊंचाई में चार फीट तक। खेत ज्यादातर वर्तुलाकार थे। फिर तो सिंचाई में और भी समस्या होती होगी। मक्के के पौधों की पत्तियां गहरे हरे रंग की थीं। मन किया कि उतर कर नजदीक से मिट्टी की गुणवत्ता भी परखी जाय। मैंने स्टीफेन को एक उंगली दिखायी। वह समझ नहीं सका। मैंने उसके कान में मुंह सटा कर कहा- वांट टू मेक वाटर।... टु यूरिनेट। योरप और अमेरिका की यात्रा में ड्रायवर बीच रास्ते में गाड़ी नहीं रोकते इसलिए मैं सशंकित था कि पता नहीं ड्रायवर की क्या प्रतिक्रिया होगी। लेकिन स्टीफेन मुस्कराया, बोला- वेट, वेट।

        फिर बोला- So you want to demarcate your own terittory as lions do.

        - Yes-Yes मैंने कहा और सब हंसने लगे।

        स्टीफेन ने सफारी पटरी पर उतार कर खड़ी कर दी। मैं उतर कर मक्के के खेत की मेड़ तक गया और अपना काम करने लगा।

        मक्के के पौधे पंक्ति में बोये गये थे। एक पंक्ति से दूसरी की दूरी डेढ़ फीट और एक पौधे से दूसरे की दूरी एक फीट थी। मिट्टी काली थी। उसे पलटने वाले मेस्टन हल से जोता गया था लेकिन उसमें पाटा नहीं दिया गया था। पल्टी गयी मिट्टी ज्यों की त्यों पड़ी थी। यह खेत भी वर्तुलाकार था। अर्थात या तो बरसात हो या इसमे स्प्रिंकल विधि से सिंचाई की जाय।

        आगे जब-जब मुझे जरूरत महसूस हुयी, मैंने यही कहा कि I want to demarcate my deritory और कभी उसने गाड़ी रोकी तो कभी खतरा बताकर कहा- Wait, Hold on – Hold on.

        अंततः मसाईमारा रिजर्व फारेस्ट का विशाल प्रवेश द्वार आया। मसाई औरतों और लड़कियों ने जंगली जड़ीबूटी के पैकेट बेचने के लिए गाड़ी को घेर लिया। क्या तो लम्बी-चौड़ी, विशाला स्त्रियां।

        स्टीफेन ने बताया कि पूरे जंगल क्षेत्र को पांच छः हिस्सों में बांटा गया है। एक समय में एक ही हिस्से को 5-6 साल के लिए पर्यटकों के लिए खोला जाता है। शेष जंगल में मनुष्य का प्रवेश बंद रहता है। इस प्रकार एक शेर, बाघ या अन्य जीवों को 15-20 वर्ष के अपने जीवन काल में 4-5 साल से ज्यादा मनुष्य को देखने का दुःख नहीं उठाना पड़ता। केवल हाथी ही है जिसे दुबारा मुनष्य का सामना करने का दुख उठाना पड़ता है।

        जंगल में 5-6 कि.मी. धंसने के बाद आया- होटल सेन्टिनेल। फूस और लकड़ी से छाया हुआ। लगभग सौ कुर्सियों की क्षमता और करीब पचीस फीट ऊंची छत वाला डाइनिंग हाल। फूस का ही स्वागत कक्ष, किचन, बार और पीछे थोड़ा नीचे उतर कर बनाया गया स्वीमिंग पूल। सारी सुविधा शहरी होटल की तरह। एक खास बात और। इस जंगल में बिजली की लाइन नहीं दी गयी है। न बिजली न टेलीफोन। (अब तो खैर मोबाइल फोन का अविष्कार हो गया है।) ताकि जानवरों के पर्यावरण को हानि न पहुंचे। स्वीमिंग पूल का पानी गरम करने और प्रकाश की व्यवस्था के लिए सौर ऊर्जा और पवनचक्की से बिजली पैदा की जाती है। हम सात बते नैरोबी से चले थे अैर साढे़ ग्यारह बजे होटल पहुंचे। काटेज बुक कराये। होटल से जंगल की ओर दो-ढाई फीट चौड़ा, पत्थरों से बना रास्ता जाता है। इसी रास्ते पर करीब एक कि.मी. की लम्बाई में 20’x20’ के क्षेत्रफल की टेंट लगाकर करीब 40 आवास बने हैं जिन्हें काटेज कहा जाता है। प्रत्येक काटेज में तीन डबल बेड वाला एक बड़ा बेडरूम, लैट्रिन, बाथरूम, वाशबेसिन, चाय, काफी बनाने का सामान कप प्लेट बर्तन बगैरह। सफेद झक चादरें। टेंट की दीवार पर टंगी पेंटिंगें। स्टूल, टेबल, कुर्सियां, मच्छरदानी। जरूरत की सारी चीजें। काटेज की चाभी और साथ में हमारी अटैंचियां लेकर जो आदमी काटेज तक आया उसने अपना नाम LIALO SILANTO – EMPOPONGI ARCA MASAI बताया। बताया नहीं बल्कि खुद मेरी डायरी में लिख दिया। उम्र 38 वर्ष कक्षा 8 पास। four Year Service. मुस्कराकर धीमे बोलने वाले LIALO ने वेतन पूछने पर कहा- It is secret, Sir. उसने गरम ठंडे पानी और चायपत्ती, चीनी, दूध आदि की उपलब्धता तथा हीटर का आपरेशन समझाया।

        एक घंटे बाद भोजन के लिए निकलना था। इस बीच चाय पीकर गर्म पानी से स्नान किया गया।

        भारतीय पर्यटकों के लिए आमिष-निरामिष दोनों प्रकार के भोजन की व्यवस्था थी। दोनों प्रकार का स्टार्टर, मांस, चिकन, अंडे, दारू, सूप, जूस, चावल-दाल गेहूं की रोटियां, सब्जियां, दही, फल, अचार, सलाद। जो मन करे जितना मन करे खाइये पीजिए लेकिन पानी नहीं मिलेगा। पानी दिन भर में एक लीटर ही मिलेगा। आधा-आधा लीटर की दो बोतल। ज्यादा चाहिए तो खरीदिए। मैंने भी दो सौ पचास सिलिंग में एक बोतल खरीदी। अगले दिन बाजार में वही बोतल 100 सिलिंग में मिली।

लंच लेकर, थोड़ी देर विश्राम किया गया फिर शाम साढे़ तीन बजे जंगल भ्रमण के लिए निकले। गेट से बाहर आकर बायीं तरफ का रास्ता पकड़ा गया। थोड़ी दूर पर वन विभाग का बैरियर था। यहां गाड़ी का नम्बर, पर्यटकों का नाम पता नोट किया गया। बैरियर के बगल में मृत हाथियो के अस्थिपंजर का ऊंचा टीला था। आगे बढे़ तो सड़क के किनारे एक पंक्ति में मृत जंगली भैसों के सिर रखे हुए थे। सैकड़ों सिर।

        मेरी सफारी में सांवला तमिल पति, गोरी चिट्टी सिन्धी पत्नी और उनकी छः वर्ष की बेटी आराधना तथा एक बंगाली दम्पत्ति व उनका बीस वर्षीय बेटा कार्तिक थे। तमिल दम्पत्ति बम्बई से आये थे। आराधना हमेशा हंसती रहने वाली और बेहद मृदुल स्वर व स्वभाव की लड़की। तमिल, सिन्धी, मराठी, गुजराती, हिन्दी व अंग्रेजी धारा प्रवाह बोलने वाली। अपने पिता से तमिल में, मां से सिन्धी में, मेरी पत्नी से हिंदी में और सेन परिवार तथा ड्राइबर से अंग्रेजी में बोल रही थी। सेन पिता-पुत्र अत्यन्त मित भाषी। उनकी कमी पूरी कर रही थीं महारूपसी मिसेज सेन। हाथ में लिए छोटे गोल शीषे में बार-बार अपना रूप देखतीं और ड्राइवर पर सवालों की झड़ी लगाती रहतीं। सवाल का जवाब देने के पहले ड्राइवर हर बार उनकी ओर देखता। लेकिन फिर उसने देखना और जवाब देना दोनों बंद कर दिया।

        बोला- Let me drive Madam. इतने सदमे में चली गयीं कि फिर घंटे भर तक कुछ नहीं बोलीं।

        घने जंगल का क्षेत्र खत्म होने के बाद झाड़ियां आयीं। फिर घास का मैदान शुरू हुआ। पहले हिरनों का चरता हुआ झुंड दिखा। चार-पांच सौ तो रहे ही होंगे। फिर जेब्रा- चालीस-पचास का झुंड। फिर वाइल्ड बीस्ट- सौ के लगभग। दूर-दूर तक फैले हुए। इन्हीं के बीच में डेढ़ दो हजार की संख्या में पालतू भेड़ों और गायों का रेवड़। इनके साथ एक-दो मसाई युवक, भाले लिए हुए। शेर, बाघ जानते हैं कि इन जानवरों को आदमी ने पाला है, वह इनका रक्षक है और इनका शिकार करना उन्हें मंहगा पडे़गा। इसलिए अपवाद को छोड़ दें तो वे इनका शिकार नहीं करते। और जो करता है उसे ए मसाई युवक समूह में घेर कर अपने भाले से मार डालते हैं। या वह अपराधी शिकारी जानवर ही भाग कर, छिप कर अपनी जान बचाने की कोशिश करता है। स्टीफेन ने बताया कि शेर, बाघ, चीते, शिकारी जानवर कम बुद्धिमान नहीं होते। संकट भाप कर चार-छः महीने के लिए वह क्षेत्र ही छोड़ देते हैं।

        आगे जंगली भैंसो का झुंड मिला। ऊंचे पेड़ों की छाया में नाले से ऊंचाई पर, कुछ बैठे कुछ चरते हुए। उत्सुकता से सफारी गाड़ियों को देखते। पन्द्रह-बीस दिन के नवजात शिशुओं को लेकर उनकी माताएं झुंड से सुरक्षित दूरी बना कर अलग चर रही थीं, कि उनका लाल कहीं इन उछलते कूदते, लड़ते मदमत्त भैंसो के नीचे कुचल न जाय। इसी तरह हाथी के छोटे बच्चे या तो अपनी मां के आगे-आगे चल रहे थे या मां के पिछले पैरों से सटे बगल-बगल। अकेले विचरण करने वाले नर हाथी एक दूसरे से बीघे दो बीघे की दूरी बनाए अकेले खडे़ झूम रहे थे। फोटो खिंचाने के लिए ये हाथी भी कम लालायित नहीं दिख रहे थे। सूंड उठा कर चिग्घाड़ना और कभी-कभी दो चार कदम आगे बढ़ आना। फोटो खिंचाने के लिए कम शौकीन नर हिरण भी नहीं थे। वे भी चरना छोड़कर झुंड से आगे निकल कर पोज देते थे। जिराफ तो दूर से चल कर गाड़ी के पास तक आ जाते थे। जेब्रा जरूर अपने काम यानी चरने या रतिक्रिया में व्यस्त रहते थे। वाइल्ड बीस्ट का मुखिया या तो हू-हू की आवाज निकालता हुआ अगले पैर से जमीन खूंदने में लग जाता था या झुंड को लेकर दूर चला जाता था। अद्भुत दृश्‍य था। दो-ढाई वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में सारे जानवर बिना किसी भय के अपनी मौज में विचर रहे थे। एक पेड़ की बीस पचीस फीट ऊंची डाल से लटका भुसनू मधुमक्खियों का एक छत्ता भी दिखा।

       दूर तक फैले घास के मैदान में इंडियन मिलिटरी रंग की सफारी गाड़ियां या सफेद वैन दौड़ रही थीं। दर्जन भर गाड़ियां। स्टीफेन ने तनिक रूक कर जायजा लिया कि किधर चलना फलप्रद होगा। यानी किधर शेर या बाघ के दर्शन हो सकते हैं। 

करीब एक  कि.मी. दूर चार पांच गाड़ियां रूकी थीं और कुछ उधर जा रही थीं। स्टीफेन ने भी उधर ही गाड़ी बढ़ायी। पास जाकर देखा, कच्ची सड़क से 8-10 मीटर दूर एक डेढ़-दो फीट ऊंचे ढूह पर बाघ के चार बच्चे पिछला हिस्सा जमीन पर रखे अगले दो पैरों के सहारे धड़ संभाले बैठे पास आती गाड़ियों को कौतुहल से देख रहे थे। थोड़ी ही देर में उनके चारों ओर गाड़ियां ही गाड़ियां लग गयीं। फ्लेश चमकने लगे। बच्चे (आदमियों के) खुशी से चीखने लगे। बाघ के बच्चों की नजर दूर पहाड़ी की ओर थी। उधर दूरबीन से देखने पर पता चला कि एक बाघ पहाड़ी से उतर कर घास के बीच से चलता हुआ इधर ही आ रहा है। कुछ गाड़ियां उधर बढ़ गयीं। बच्चे अविचलित अपनी जगह पर थे। जैसे मां बाप ने कह रखा हो कि इस जगह से हिलना नहीं।

       बाघ कच्ची सड़क के समानान्तर सड़क से दो ढाई सौ फीट की दूरी बना कर आ रहा था। कुछ देर बाद घास के बीच से बाघ की घरवाली प्रकट हुयी। उसने खडे़ होकर अंगड़ाई ली। पूंछ लपलपायी और लपक कर बाघ का मूंह चूम लिया। फ्लैश लाइट और गाड़ियों को कोई तवज्जो न देते हुए दोनों मस्त चाल से अपने बच्चों की ओर बढे़। बच्चे भी उनकी ओर बढे़। पास पहुंचकर बच्चों ने मां बाप का मुंह चूम कर और दुम हिलाकर उनका स्वागत किया। मां बाप ने भी उन्हें थोड़ा-थोड़ा चाट कर अपना प्यार जताया। आस-पास उमड़ी गाड़ियों की भीड़ उनके लेखे वहां थी ही नहीं। वे सड़क के समान्तर आगे बढ़ते रहे फिर एक जगह सड़क पार करने लगे। आगे पिता बीच में पंक्तिबद्ध चारो बच्चे और पीछे उनकी मां। वे उधर ही जा रहे थे जिधर भैंसों का झुंड देखा गया था और नाला था।

सब अपने कैमरों में अनगिनत फोटो लेकर और वीडियो बनाकर तृप्त थे। सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। गाड़ियां वापस चल पड़ीं।
वापसी में देखा, घासों के बीच एक छोटे तालाब के किनारे एक मोया (अकेल विचरण करने वाला) हाथी पानी पी रहा था। बीच-बीच में थोड़ा पानी सूंड़ से पीछे फेंक रहा था। तालाब के दूसरे किनारे पर पन्द्रह बीस दिन के बच्चे वाली एक जंगली भैंस ऐसी जगह तजवीज कर रही थी जहां से वह अपने बच्चे को पानी पीने के लिए नीचे उतारे कि उसका बच्चा कीचड़ में न फंस जाय। उन दोनों की मदद के लिए वहां तीसरा कोई न था। 
सूरज लाल किरने बिखेरने लगा। जंगल के सारे जानवर चलायमान थे। वहां जायेंगे जहां इन्हें रात बितानी होगी। लेकिन एक छोटी सी झाड़ी के नीचे करीब दो फीट लम्बा और डेढ़ फीट ऊंचा, दाढ़ी वाला चितकबरा हिरन (ही होगा) खड़ा जुगाली कर रहा था आंखें मिचमिचा रहा था और किसी भी तरफ नहीं देख रहा था। समाधिस्थ! नितान्त अकेला- मन और प्रवृत्ति से। यह किसी झुंड का सदस्य नहीं होगा। लगता है यह आज की रात इसी झाड़ी के नीचे बिताने वाला है।

अंधेरा उतरने लगा। झिल्ली की झंकार शुरू हो गयी।

चिड़िया इस जंगल में बहुत कम दिखीं। भैंसों की भौंह से किलनी नोचकर खाने वाली ही दिखीं। कहीं-कहीं इक्की दुक्की क्रेन। एक गिद्ध का घोंसला दिखायी दिया था एक ऊंचे पेड़ की अधसूखी डाल पर। करीब आधे घंटे घने जंगल में हिचकोले खाने के बाद हमारी सफारी होटल के प्रांगण में पहुंची।

बिना बिजली के कनेक्षन वाले इस होटल से काटेज तक जाने वाला रास्ता गोबर गैस या सौरऊर्जा से जलने वाले मद्धिम बल्व की रोशनी से आलोकित हो रहा था। हम अपना कैमरा, पानी, दाने आदि का बैग संभाले काटेज की ओर बढे़।

सबेरे छः बजे डाइनिंग हाल में आकर चाय पीना है। और साढे छः बजे जंगल दर्शन के लिए निकल पड़ना है।

इस काटेज में रात्रि गुजारने का अनुभव अनोखा है। चारो तरफ कटीली झाड़ियां, अंधकार और झिल्ली की लगातार झनकार। थकान के बावजूद नींद कई बार टूटी।

सबेरे चाय पीकर हम गाड़ी में बैठे। आज मुख्य गेट से दाहिने हाथ की सड़क पर चल रहे हैं। अभी सूरज निकल ही रहा था लेकिन हिरनों के झुंड चरने के काम में लग गये थे। सामने के सड़क किनारे के पेड़ पर बया जैसी छोटी चिड़ियों ने डाल से लटकने वाले घोसले बनाये थे। हमारे यहां के बया के घोसले दो मंजिले और दो द्वार वाले 16 से 18 इंच तक लम्बे होते हैं। ए घोसले एक ही द्वार वाले और करीब 8 इंच लम्बे थे। सहसा एक बाज ने झपट्टा मारा और उड़ते हुए गौरैया के जोडे़ से एक को दबोच लिया। लाकर बीच सड़क पर रखा और चोंच से नोचने छेदने लगा। जोड़े की दूसरी चिड़िया बाज के सिर पर उड़ती हुई चीं चीं कर रही थी। हमारी गाड़ी आगे बढ़ी तो बाज अपने शिकार को पंजे में दबोच कर पेड़ की डाल पर बैठ गया और उसके पंख नोच-नोच कर गिराने लगा। गाड़ी रुक गयी। लोग उसका वीडियों बनाने लगे। शिकार का जोड़ीदार बाज के सिर पर उड़ते हुए चीं चीं करने के अलावा कुछ न कर सका। हम भी कुछ न कर सके। उतर कर ढेला मारते तो भी उस ऊंचाई तक न पहुंचता। ‘च्च-च्च‘ करते आगे बढ़ गये।

बहुत दूर पहाड़ी की तलहटी में चार-पांच हाथी दिखे। फिर कुछ नहीं। चलते रहे, चलते रहे। बायीं तरफ छोटी पीली घासों वाली विस्तृत घाटी थी। थोड़ा आगे तीन चार गाड़ियां जाकर एक जगह रुक रही थीं। हमारे ड्राइवर ने भी उधर ही गाड़ी मोड़ी। कैमरे को लांग शाट के लिए तैयार करके दूरबीन में देखा तो दूर घास में कोई छोटा जानवर दिखायी पड़ा। उसका आगे का दाहिना पैर जख्मी था। वह उचक-उचक कर चल रहा था। मुड़-मुड़ कर गाड़ियों की ओर देख रहा था और थोड़ी दूर चलने के बाद बैठकर दम मार रहा था। अंततः एक झाड़ी में घुसकर अदृश्‍य हो गया।

एक छिछला, लगभग सूख चला तालाब था। उसकी तली में बहुत कम पानी। एक प्राणी (शायद हाइना) पानी तक पहुंचने के प्रयास में कीचड़ में फंसा जा रहा था। मुड़ मुड़कर हमारी गाड़ियों की तरफ भी देख लेता था। हमारे और उसके बीच में नाला था। कैमरे में उसकी छवि कैद करके हम शेर की तलाश में आगे बढे़। करीब आधे घंटे चलते रहे, जब तक सामने से आती गाड़ी के ड्राइवर ने यह सूचना नहीं दी कि आगे बायीं तरफ ढूंह पर एक शेर लेटा हुआ है।

हमारे पहुंचने के पहले वहां तीन गाड़ियां पहुंच चुकी थीं। शेर भीमकाय था। सड़क की ओर उसकी पूंछ थी। लोगों ने शोर करके उसे उठाना चाहा। उसने एक बार सिर उठाकर देखा भी लेकिन फिर पसर गया। देर तक नहीं उठा तो गाड़ियां आगे बढ़ीं। मेरी पत्नी ने मेरे माध्यम से ड्राइवर से कहा मैं इसे उठा दूंगी। गाड़ी थोड़ा बैक करिए। गाड़ी बैक की गयी। पत्नी ऊपर की छत खुलवा कर छत की टिन हाथ से पीटते हुए लूहा-लूहा कीं। उन्हें गांव में सियार लोहकारने का अभ्यास था। वह फलीभूत हुआ। शेर उठ बैठा। गाड़ी की ओर देखा फिर खड़ा हुआ और ढूंह से नीचे उतर कर झाड़ियों में अदृश्‍य हो गया। इस बीच कैमरों को कई शाट मिल गये। लोग कृतार्थ हुए। पत्नी के शुक्रगुजार हुए और आगे बढ़े।

चार-पांच हाथियों का झुंड सड़क पार कर रहा था। उनके साथ दो बच्चे भी थे। हम रुक गये। पास जाने पर बच्चों की सुरक्षा के लिए वे क्रोधित भी हो सकते थे।

फिर चार-पांच कि.मी. चले तो सड़क के किनारे फैली तीन-चार फीट ऊंची पीली घास के बीच में चार-पांच बाघों की झलक दिखी। एक बाघ का आधा धड़ घास में और सिर वाला हिस्सा बाहर सड़क की पटरी पर था। वह आंख बंद किए लेटा था। हमारी गाड़ी का पहिया उसके सिर से दो मीटर दूर रुका लेकिन आंख मुलमुलाने के अलावा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ऐसा तो नहीं होना चाहिए। इतने शोर शराबे के बावजूद ए इतने शांत बल्कि कहिए इतने सुस्त क्यों हैं? हम शेर की दहाड़ सुनने को क्यों तरस गये। इनसे ज्यादा तो चिड़िया घर के शेर-बाघ दहाड़ते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि पर्यटकों को ए जानवर सुगमता से दिखें, इसके लिए रात में इन्हें नशे का इन्जेक्‍शन लगा दिया गया हो। पास के मैदान में चार-पांच सौ हिरनों का एक झुंड चर रहा था लेकिन इन बाघों का उनसे कोई लेना देना नहीं लगता था। क्यो?

एक दो गाड़ियां घास में घुसकर उन बाघों के बिल्कुल पास गयीं तो इतना हुआ कि वे चार-छः कदम चलकर फिर बैठ गये।
       दस बज गये थे। हम वापस हुए। नास्ता करते समय बताया गया कि यहां से आधे घंटे के रास्ते पर मसाई लोगों का गांव है। जो लोग उनसे मिलना चाहें चल सकते हैं। लंच के समय तक वापस आ जायेंगे। यह भी बताया गया कि उनका नृत्य देखने और घरों को अंदर बाहर से देखने के लिए उन्हें प्रति व्यक्ति बीस डालर देना होगा। इसे उनकी मदद मान सकते हैं।

हम कुछ लोग एक गाड़ी में गये। जंगल के बीच खुले मैदान में दस-बारह झोपड़ियों का गांव था। चारों तरफ कांटेदार सूखी झाड़ियों का एक घेरा बनाया गया था। एक प्रवेश द्वार था। मैंने गांव के मुखिया के लड़के से पूछा कि आप लोग प्रति व्यक्ति बीस डालर देने का ही दबाव क्यों बनाते हैं? हम पांच डालर देना चाहते हैं तो पांच ही लीजिए।

    एक बार तो वह झुकने के लिए तैयार दिखा पर हमारे बीच के कुछ लोग इतने उतावले थे कि उन्हें यह सौदेबाजी नागवार गुजर रही थी। यह देखकर वह लड़का भी बीस डालर के लिए अड़ गया। वह भी एडवांस। वह अच्छी अंग्रेजी बोल रहा था और उसके हाव-भाव पेशेवराना लग रहे थे। शायद इस राशि में हमारे ड्राइवर का भी कुछ हिस्सा हो। हर जगह नेगेटिव सोचने की आदत जो है मेरी। पत्नी ही मेरा विरोध करने लगीं। बोलीं- इतना पैसा खर्च करके यहां तक आ गये और अब बीस डालर देने में आपकी फट रही है।... क्या करते, दिया।

 मुझे तो वहां कुछ खास देखने लायक नहीं लगा। आस.पास बबूल के पेड़ थे। झोपड़ियों के छत की ऊंचाई सिर के बराबर, पतली टहनियों से बनी छत और दीवारें, दीवार व छत पर मिट्टी का लेप। दो फीट चौड़ा और पांच फीट ऊंचा लकड़ी का किंवाड़। 15*10 फीट की जगह में मिट्टी ऊंची करके बनाया गया बिस्तर और बगल में रसोई-चूल्हा। चंद एल्यूनियम के बर्तन, पतीला। धुंआ निकलने के लिए एक 1*1 का रोशन दान। एक बडे़ पतीले में आठ-दस लीटर दूध गरम हो रहा था। मोटी साढ़ी पड़ी थी। मुखिया के लड़के ने बताया कि हम मांस के लिए जो जानवर काटते हैं उसका खून भी दूध में मिलाकर पी जाते हैं। बहरहाल गरम हो रहे दूध में खून की मिलावट नहीं थी। रात में उजाला कैसे करते हैं यह पूछना भूल गया। अंदर ढिबरी या लालटेन जैसा कुछ नजर नहीं आया।
  
बाहर बबूल के पेड़ के नीचे उनकी औरतें और बच्चे बैठे थे। मुखिया के लड़के ने अपनी पत्नी से मिलवाया। बीस बरस की लड़की। अभी मां नहीं बनी। वह बैठी मुस्करा व शरमा रही थी। उसके दांत चमकीले थे चोटी में लाल रिबन था। बाल एक फीट लम्बे थे। कान में कोई आभूषण था पर सोने या चांदी का नहीं। कपड़े घुटने तक ही थे। मुखिया के बेटे डेविड ने बताया अभी उसके एक ही पत्‍नी है जब कि उसके पिता के पास चार पत्निया । बारह गाय देने पर एक पत्नी मिल सकती है।

    -क्या वह भी मोर दैन वन पत्नी रखेगा?
   
    -श्योर-श्योर। वह शरमाते हुए मुस्कराया।

    मसाई युवकों ने उछलने कूदने और हः हः हः करके गाने वाला अपना नृत्य दिखाया। एक खास छड़ी को पत्थर पर रगड़ कर आग पैदा करने की विधि का प्रदर्शन किया।

    यह पूछने पर कि पढ़ाई कहां तक किया है? बताया कि दर्जा पांच तक सामने के उस स्कूल में और उसके बाद आठ तक तीन कि.मी. दूर के स्कूल में।

    -उसके बाद?

    -उसके बाद नहीं। उसके बाद पढ़ने के लिए नैरोबी जाना पड़ेगा। हम लोग अपना गांव छोड़कर वहां नहीं जाना चाहते।

-क्यों?

    - Too much people there. we feel good here in my forest with my cows. ok, ok.

    -इतनी अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेते हैं? अंग्रेजी किस क्लास में पढ़ाई जाती है?

    - बिगनिंग। शुरू से।

    - कोई मसाई भाषा भी है?

    - बोलने की है, लिखने की नहीं, लिखते अंग्रेजी में हैं।

    - हम लोगों ने बीस-बीस डालर दिए हैं। इसकी रसीद तो दो।

    - नो रसीद।

    - इसे कहां खर्च करोगे?

    - अपनी दवा में। पढ़ाई में।

    यह वाक्य रटा रटाया लगा। ठगे जाने का भाव भी मन में आया। बीस डालर बहुत होते हैं। फिर इसी गांव में लेकर ए लोग क्यों आये? होटल वालों का नहीं तो कम से कम ड्राइबर का कुछ लोभ-लाभ तो जरूर निहित होगा इसमें।

    लौटे होटल। लंच लिया। गीला चावल, मूंग की पतली दाल। पापड़, दही, कस्टर्ड, मछली, मुर्गा आदि-आदि।

    चार बजे फिर निकले जंगल दर्शन के लिए। इस बार एक नयी राह पर। बहुत दूर निकल आने पर जंगली भैंसो का झुंड मिला। गाड़ी देखते ही चरना छोड़कर सिर उठा कर देखने लगते हैं और लगातार देखते रहते हैं, दूर तक। माताएं अपने लेरुओं के साथ थोड़ा अलग ही थीं। गाड़ी देखकर सशंकित। आगे उल्टे तवे जैसा वर्तुल कत्थई मिट्टी का करीब एक कि.मी. क्षेत्रफल वाला घास का मैदान मिला। बीच में दो तीन इंच और किनारों पर दो ढाई फीट ऊंची घास के बीच डेढ़-दो सौ हिरनों का झुंड चर रहा था। सफारी के गुजरने की उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। अचानक ऊंची पीली घास से एक शेरनी अपने सबसे नजदीक चर रहे हिरन की दिशा में तीर की तरह झपटी। नजदीक के सारे हिरन भागे। लक्षित हिरन को भी पता चल गया। तब उसकी लम्बी छलांग और हवा में उछाल दर्शनीय था। सौ-डेढ़ सौ मीटर की दौड़ के बाद ही शेरनी को पता चल गया कि शिकार उसकी पकड़ में नहीं आने वाला। वह रुक गयी। अगले ही पल लक्षित हिरन भी रुक गया। शेरनी सुस्त कदमों से वापस मुड़ी और चंद कदम चलकर दूसरी दिशा में मुंह करके लेट गयी। बीतरागी होना शायद इसे ही कहते हैं। लक्षित हिरन अपनी जगह पर चरने लगा। सारा कार्य व्यापार जस का तस। जैसे कुछ घटित ही नहीं हुआ।

    शाम होने वाली थी। शेरनी का यह प्रयास (शायद अन्तिम) निश्‍फल गया। तो क्या उसे आज उपवास करना होगा? उसके छोटे-छोटे बच्चे तो न होंगे? हमारे साथ की तीनों गाड़ियों के पर्यटक शेरनी के इस असफल शिकार के प्रयास को कैमरे में कैद करके खुश थे। सब हिरन के बच जाने से खुश थे। शेरनी की असफलता उसकी अकेली थी।

    हम लोग वृत्ताकार रास्ते से वापस हुए। एक छोटी नदी पर बने लकड़ी के पुल को पार किए। फिर घने जंगल को पार करके घास के मैदान में आये। ढाई-तीन फीट की ऊंचाई वाले एक समतल टीले पर एक बाघिन अपने तीन बच्चों के साथ बैठी थी। बच्चे आपस में खेल रहे थे। पहले उनके पास हमारी गाड़ी आकर रुकी फिर अलग-अलग दिशाओं से तीन गाड़ियां आ गयीं। सब फोटो खींचने लगे। वहीं खडे़-खडे़ एक गाड़ी का पिछला पहिया पंचर हो गया। अब क्या हो? बच्चों वाली बाघिन के पास गाड़ी से नीचे उतरने का मतलब था अपने प्राण से हाथ धोना। ड्राइबर उस गाड़ी को स्टार्ट करके धीरे-धीरे करीब दौ सौ मीटर आगे लाया। फिर बाकी की तीन गाड़ियों ने उसको घेर लिया। तब ड्राइबर ने जल्दी-जल्दी पहिया बदला। इस बीच बाघिन उठी और हल्के-हल्के पूंछ उठाती गिराती बच्चों को लेकर ढलान पर उतर गयी।

    रास्ते में एक मोया (अकेले विचरण करने वाला) हाथी सड़क से दूर घने जंगल की ओर जाता हुआ दिखा। गाड़ी की आवाज सुनकर वह रुका और मुड़कर हमें देखने लगा। हमने भी गाड़ी रोकी और उसका फोटो खींचने लगे। यह देखकर वह हमारी गाड़ी की ओर बढ़ने लगा। काफी करीब आकर रुका और कान फटफटाने और झूमने लगा। जैसे कह रहा हो- खींजो जितनी फोटो खींचना चाहो। हमारी गाड़ी आगे बढ़ी तो वह भी मुड़कर जंगल की ओर चल पड़ा। यानी फोटो खिंचाने की साध उसे वापस खींच लायी थी।

    सूरज की किरणें लाल होने लगीं। आसमान में उड़ती चिड़िया अपने बसेरे की ओर जाने लगीं। अंधेरा उतरते-उतरते हम भी होटल लौटे। एक डाक्टर साहब ने शाम को अपनी काटेज में बियर पीने के लिए आमंत्रित किया था। डा. V.S. HOSMATH ने। उनके साथ थोड़ी बियर ली। उन्हें थोड़ा अजीब लग रहा था कि अपना पैसा खर्च करके घूमने आये हैं। उन्हें ऐसा इसलिए लग रहा था कि इस टूर में ज्यादातर डाक्टर थे और सभी को किसी न किसी दवा कम्पनी ने स्पांसर किया था।

    आज डिनर का इन्तजाम स्वीमिंग पूल के गिर्द था। वहीं दो स्थलों पर लकड़ी का अलाव जलाया गया। शाम को ठंड उतर आयी थी। इतने दिन में सब एक दूसरे से परिचित हो गये थे। फोन नं. लेने देने का काम चल रहा था।

    आज शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के कई प्रकार के व्यंजनों का इंतजाम था। शराब थी, जूस था, स्वीट डिस थीं। एक दो लोग बहक भी गये थे। हल्द्वानी के डाक्टर ने साहब जो अपनी उम्र 79 बता चुके थे, गिलास अपने सिर के ऊपर घुमाते हुए कुछ ठुमके भी लगाये। बाद में एक स्थानीय सहायक उन्हें सहारा देकर उनके काटेज तक ले गया क्योंकि उनकी दुबली-पतली, सीधी पत्नी ने उन्हें संभालने में असमर्थता जाहिर कर दिया था। बच्चों को छोड़ दें तो यहां ज्यादातर पचास के आसपास की उम्र के लोग थे। फिर भी मुझे लगता है कि अगर यह भारतीय न होकर यूरोपियन मूल के होते तो जाते-जाते चार-छः नये जोडे़ तो बन ही जाते।

    आज वापसी थी। सबेरे चार बजे उठे और तैयार होकर समान सहित 6 बजे डाइनिंग हाल में आ गये। मोबाइल, कैमरा चार्ज किया। नास्ता किया और सात बजे अपने-अपने वाहन में बैठ गये। आज सोमवार था और यहां प्राइमरी स्कूल शायद सबेरे आठ बजे से शुरू होता था। रास्ते में स्कूल जाते बच्चे दिखे जो अपने हाथ में एक-एक लकड़ी लिए थे। जलौनी लकड़ी। स्टीफेन ने बताया कि यहां स्कूल में ‘मिड-डे-मील’ दिया जाता है। हर बच्चे को चूल्हे में जलाने के लिए एक-एक लकड़ी घर से लाने का निर्देश है। तो यहां भी भारत की तरह मिड डे मील दिया जाता है। बस भारत के बच्चों को घर से लकड़ी लाने की बंदिश नहीं है।

    भैंसों, हिरनों और वाइल्ड बीस्ट का इलाका खत्म हुआ। फिर भेड़ों और गायों का। बीच में अर्धमरुस्थलीय धरती आयी। मैंने एक जगह गाड़ी रुकवाकर अपनी बाउन्डरी का डिमारकेशन किया फिर आगे बढ़कर चाय पी गयी। अब पक्की सड़क और हरियाली का पहाड़ी साम्राज्य आया।

    तमिल सिन्धी जोड़े को होटल इन्टरनेशनल पर उतरना था। उन्हें उतारा गया। फोन करने का वायदा किया गया (जो कभी पूरा नहीं होता।) और बच्ची आराधना की बाय-बाय लेकर हम नैरोबी एअरपोर्ट आ गये। स्टीफेन को गले लगाकर और भूल-चूक की माफी का आग्रह करते हुए विदा लिया।

    अभी चेक-इन में समय था। एक किनारे बेंच पर बैठ कर इत्मीनान से भुने चने, गेहूं, बहुरी, अरहर, मूंगफली और मखाने के काकटेल का लंच लिया गया। भरपेट पानी पिया गया। डकार आ गयी।

    तब बैगेज ड्राप किया गया। आटोमेटिंग मशीन से बोर्डिंग पास निकाला गया और अंदर प्रवेश किए।

    फ्लाइट में डिनर में अरहर की गाढ़ी दाल और लम्बे सफेद चावल का भात मिला। साथ में पाव, मरसा का साग और मक्खन की टिकिया, सलाद। चावल दाल देखकर ही चोला मगन हो गया। हिवस्की, वाइन, बियर जो चाहें। मौका था, मैंने थोड़ी बियर भी चखी।

    बगल की सीट पर बैठी साउथ सूडान की 180 से.मी. लम्बी (जैसा कि उसने बताया था) युवती बहुत बातूनी और मिलनसार निकली। वह फरवरी से अप्रैल 13 तक किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में नयी दिल्ली रह चुकी थी। उसने कहा- इंडियंस आर गुड पीपल। उसने बताया कि उसके देश में एक आदमी चार पांच शादी करता है। उसे यह पसंद नहीं। इंडियन्स उसे इसलिए भी पसंद हैं कि They have only one wife and the same for life long. thats very very good. मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर उसने मेरी पत्नी की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या यही शुरू से आपकी पत्‍नी हैं?

    -जी हां, मुझे मौका ही नहीं मिला।

    मेरा मजाक समझ कर वह जोर से हंसी फिर कहा- नो-नो। यू पीपुल आर रियली गुड।

    युवती के शरीर से एक खास तरह की गन्ध आ रही थी। वह आदिम गन्ध थी, सेंट की नहीं। आज भी कभी-कभी आती है पर यह नहीं तय कर पाया हूं कि उसे खुशबू के खाते में डाल सकता हूं या नहीं?

    वह युवती दो घंटे बाद उतर गयी। दो बजे रात के लगभग हमारा विमान बम्बई के एअरपोर्ट पर उतरा। सबेरे हम कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना के घर पहुंचे। उनकी पत्नी ललिता जी ने सड़क तक आकर मुक्त हृदय से स्वागत किया और अपने आवास पर ले गयी। उन लोगों की आत्मीयता ने मुग्ध कर लिया।

    जाते समय मधुकांकरिया जी की खातिरदारी मिली थी। लौटते समय धीरेन्द्र जी और ललिता जी की। दोनों तरफ से झोली भरी।

    केन्या गरीब देश है। जंगल में अभी भी लोग तालाब या नदी का पानी पीते हैं। लेकिन उसने अपने पर्यावारण को बचाकर रखा है। जंगली जानवरो को बचा कर रखा है। इसका मतलब वे मानते है कि इस दुनिया पर केवल मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है। यह दुनिया केवल मनुष्य की लिप्सा शान्ति का अखाड़ा नहीं है। इसमें हर जीव-जन्तु, जलचर, थलचर, नभचर की हिस्सेदारी है।

    गरीबी और अभाव के मामले में तो सारी दुनिया एक जैसी ही है। और जिन्होंने कोलोनियल साम्राज्य का फायदा उठाया, मारा-काटा-लूटा, ज्यादातर सम्पत्ति पर अभी भी उनका ही कब्जा है। उन्हीं के महले-दुमहले आज भी उठ रहे हैं।

-0ः-

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यत्र विश्‍वं भवत्येक नीडम्

यात्रावृतांत                                                           

 शिवमूर्ति





    अज्ञात के प्रति आकर्षण दुर्निवार होता है।

    घर के ठीक पीछे से होकर पक्की सड़क गुजरती थी। उस पर स्टेयरिंग सँभाले ट्रक या बस के ड्राइबरों को गुजरते देखता तो लगता कि दुनिया में सबसे खुशकिस्मत लोग यही हैं। पता नहीं कहाँ-कहाँ तक घूमते हैं। बड़े होकर ड्राइवर ही बनेंगे और जहाँ तक मन करेगा, घूमते रहेंगे। यदि इन बड़ी गाड़ियों के पीछे कोई छोटी गाड़ी जाती दिखती तो समझते कि यह आगे जाने वाली बड़ी गाड़ी का बच्चा है। पीछे छूट गया है।

    मेरे घर के सामने पूर्वोत्तर दिशा में मीलों तक कोई गांव नहीं था। कुछ दूर तक खेत-बाग फिर उसरीला मैदान। गर्मी में लू चलती तो ऊँचे-ऊँचे बवंडर उठते। उधर से एक पैदल का रास्ता आता जो आगे मोटे मेंड़ की शक्ल में मील भर दूर रामगंज बाजार तक जाता। मैं बहुत छोटा था तो इस रास्ते पर बाजार के दिन सुबह से दोपहर तक बहुत सारे स्त्री-पुरूष पंक्तिबद्ध बाजार की ओर जाते और शाम को वापस होते दिखायी देते। कभी-कभी उनके साथ एकाध बच्चे, कभी एकाध कुत्ते भी। उनको जाते हुए देखना बहुत अच्छा लगता। उनकी ओर उँगली दिखा कर माँ से पूछता- कहाँ जा रहे हैं इतने सारे लोग?

    -बाजार जा रहे हैं।

    बाजार की कोई शक्ल न उभरती। इतना ही समझ में आता कि वहां सफेद गट्टे के ढेर होंगे जिन्हें माँ बाजार से लौटते हुए मेरे लिए लाती हैं।

    कभी-कभी मैं जिद करता- मैं भी बाजार चलूँ। माँ कठोरता से मना कर देती- वहाँ मैं तुम्हें सँभालूँगी कि सामान? अभी चार कदम चलते ही गोद में आने की जिद ठानोगे।

    कभी पुचकारतीं- बच्चे कहीं बाजार जाते हैं? वहाँ खो जाओगे तो कहाँ अपना ‘भैया’ पाऊँगी। तुम्हारे लिए गट्टा ले आऊँगी।

    मेरी समझ में खोने का मतलब न आता। खो कैसे जाऊँगा? जब छोटा था तब नहीं खोया। अब तो चार साल का होने वाला हूं।

    मैं बताता- एक दिन मैंने एक बच्चे को लाल साड़ी वाली अपनी माँ के साथ जाते देखा था।

    -उसे वापस लौटते भी देखा?

    मैं चुप। वापस लौटते तो नहीं देखा।

    -तब? खो गया न। उसकी माँ अकेले रोती-पीटती वापस लौटी होगी। इसीलिए कहती हूँ...

    मैंने कुत्ते को भी वापस लौटते नहीं देखा था। क्या कुत्ते भी खो जाते हैं?

    माँ जब भी बाजार जातीं, मुझसे छिप कर जातीं लेकिन अक्सर मैं उनकी तैयारी से ही जान जाता। एक दिन जब मैं जान गया और साथ चलने की बहुत जिद की तो माँ ने मुझे टटरे वाले कमरे में बंद करके जँजीरी लगाया और चल पड़ी। मैंने अंदर रखे खुरपे को टटरे की फाँक के बीच डाल कर जँजीरी खोल ली और माँ का साथ पकड़ने के लिए दौड़ा। लेकिन आँगन में कीचड़ था। मेरा पैर कीचड़ में फिसला और मेरा माथा सामने रखे पीतल के भारी बटुले की कोर से टकरा गया। कोर माथे में धँस गयी। खून बहने लगा। मैं चिल्लाया। जितना चोट लगने से उतना ही माँ के हाथ से निकल जाने के कारण।

    मेरी दादी मुझे पकड़ कर रोने और माँ को आवाज लगाने लगीं- रे बड़की, लौट आ। बेटौना को चोट लग गयी है। लेकिन माँ नहीं लौटीं तो नहीं लौटीं। मैं रोते-रोते सो गया। मेरे माथे के ऊपर बायीं ओर मौजूद वह कटे का निशान आज भी बाजार के लिए मेरे दुर्निवार आकर्षण की याद दिलाता है।

    उस पैदल रास्ते को दक्षिण पूरब से आती एक कच्ची सड़क मेरे घर से एक कि.मी. सामने X की तरह काटती थी। इस पर साल भर में एक बार कई दिन सुबह से शाम तक एक अद्भुत दृश्‍य दिखता। जैसे चींटियों की लम्बी पंक्ति अपने अंडे मुँह में लिए बरसात में जाती दिखती हैं उसी तरह लम्बे हरे ताजा काटे गये बॉस के सिरे पर बड़े-बडे़ लाल झंडे टांगे, कंधे पर रखे जाते लोगों की लम्बी पंक्ति दिखती थी। दुर्गापुर के मेरे प्राइमरी स्कूल के सामने यह सड़क पक्की सड़क से मिलती थी। मैं घर रहता तो घर से और स्कूल में रहता तो अन्य बच्चों के साथ स्कूल से इस लम्बी लाल पंक्ति को देर तक देखता। लोग बताते कि ये लोग लहबरिया लेकर गाजी मियॉ के मेले में बहराइच जा रहे हैं। मनोकामना पूरी हो इसलिए।

        तुलसीदास जी ने पाँच सौ साल पहले इस यात्रा की सार्थकता पर प्रश्‍न चिन्ह लगाया था-

लही आँखि कब आँधरो, को बाझिन सुत पाय।

केहि कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।

    वे पूछते हैं कि बताइये इस यात्रा से किस अंधे को आँख, कोढ़ी को काया या बाँझ को बेटा मिल गया?

    इसका मतलब तुलसी के समय में भी ‘जग’ बहराइच जाता था और यह सिलसिला मेरे बचपन तक तो चल ही रहा था, आज भी कमोबेश जारी है।

    बहराइच मेरे घर से करीब 190 कि.मी. उत्तर में है। बीस-पचीस किलो का बॉस कंधे पर लादे पैदल चलने वाले लोग रात-दिन चलकर 6-7 दिन में बहराइच पहुँचते होंगे। बिना इस कठिनाई की चिन्ता किए। मन करता था कि मैं भी इन्हीं के पीछे-पीछे चल पड़ूँ।

    मेरे कुल देवता यही गाजी मियॉ थे। दरवाजे के एक कोने में उनकी साँग गड़ी थी। हर साल उनकी पूजा होती थी। मुजावर आते, डप्फ बजाकर, लोहबान सुलगा कर सती आमिना, करिया गोरिया, बड़े पुरूष और हठीले बरहना के गीत गाते। दादा अभुवाते फिर सिजदा पड़ जाते। बड़ा रोमांचक लगता। गाजी मियाँ से जुड़े होने के कारण मुझे बहराइच अभियान से ज्यादा नजदीकी महसूस होती।

यह आज तक नहीं समझ पाया कि एक हिन्दू के घर में मुसलमान देवता कैसे पूज्य हो गये? पहले बाबा पूजते रहे फिर दादा तब तक पूजते रहे जब तक साधु नहीं हो गये।

    खैर बहराइच तो मैं नहीं जा सका लेकिन जिस वर्ष दर्जा पाँच पास किया उस वर्ष होने वाली गर्मी की छुट्टी में बाबा सुग्रीम दास के साथ यात्रा पर निकलने का मौका मिल गया। बाबा सुग्रीम दास सियरहवा टीले पर कुटी बना कर रहते थे। कमर में मृगछाला के प्रिंट का कपड़ा लपेटते थे। कमर के ऊपर सिर्फ जनेऊ पहनते थे। तब मैं उन्हें शंकर भगवान ही समझता था यद्यपि उनके पास न डमरू था, न चन्द्रमा, न नाग, न नंदी। पैदल नंगे पैर चलते थे। पर नाक शंकर भगवान जैसी ही लम्बी और आँखे बड़ी-बड़ी थीं। मैं उनको देख कर खुश हो जाता और दौड़ कर उनके लिए चावल या आटा ले आता। यद्यपि उनके बारे में स्कूली बच्चों में एक तुकबंदी प्रचलित थी जो उनमें चारित्रिक दोष होने की ओर संकेत करती थी और उनका सम्बन्ध दुर्गापुर की एक स्त्री से जोड़ती थी पर मुझे इस पर रत्तीभर विश्‍वास नहीं होता था।

    सुग्रीम दास ने न्योता दिया- गंगा नहाने चलोगे?

    -हाँ-हाँ।

    -कल सबेरे तैयार रहो।

    मैंने माँ से पूछा।

    माँ ने कहा- पगला गया है क्या?

    आगे बात बढ़ाने से कोई फायदा नहीं था। चुप हो गया लेकिन दूसरे दिन सबेरे अभी सुग्रीम दास नहा ही रहे थे कि मैं उनकी कुटी पर पहुँच गया।

    हम लोग दोपहर तक सड़क पर चलते थे। फिर सड़क के बगल के किसी बाग में मुझे छोड़ कर वे पास के गॉव में भिक्षाटन के लिए चले जाते थे। इस बीच मेरा काम मिट्टी में गड्ढ़ा करके और ईंट के अद्धे जुटा चूल्हा तैयार करना और जलाने के लिए बाग से सूखी लकड़ियाँ जुटाना रहता था। चार पाँच बजे तक सुग्रीम दास लौट आते। टिक्कर लगाते। बैगन आलू भूँज कर चोखा बनाते और अँधेरा होने के पहले खा पी लेते। वे थोड़ी देर तक भजन करते। मैं सो जाता। सबेरे सूर्योदय के पहले फिर चलते। मैं जेब में रात का बासी टिक्कर डाल लेता। जब भूख लगती, खा लेता।

    इस तरह अस्सी कि.मी. दूर गंगा तट पर हम चौथे दिन शाम होने के पहले पहुँच गये और अगले दिन भोर में नहाकर मांगते खाते लौट आये। तब बहुत ज्यादा परेशान होने या चिन्ता करने का जमाना नहीं था। मेरी माँ यह पता लगाकर कि सुग्रीम दास अपनी कुटी पर नहीं हैं, आश्‍वस्‍त हो गयीं होंगी।

    बाद में माँ ने बताया- डर रही थी कि गंगा माई मेरे बेटे को अपनी शरण में न ले लें। इस डर की एक अलग कहानी है लेकिन वह फिर कभी। यहाँ हम अपनी ऑस्ट्रेलिया यात्रा का संस्मरण लिखने बैठे हैं। बात ऑस्ट्रेलिया से जुड़ती कैसे है?

    अक्टूबर 2002 में दादा लखनऊ आये थे। उस समय प्रतीक (उनके पोते) ग्यारहवीं में पढ़ते थे। वे रात में देर तक पढ़ते और सबेरे देर से सोकर उठते। दादा सबेरे जल्दी उठने के हिमायती थे। जब मैं छः-सात साल का था तभी मुझे सबेरे पांच बजे जगा देते थे। कहते थे कि विद्या माई सबेरे उठकर टहलती हैं। जिस बच्चे को सबेरे पढ़ता हुआ देखती हैं उसके कंठ पर विराज जाती हैं। उसे सब कुछ तुरंत याद हो जाता है। प्रतीक को देर तक सोता देख कर उनके तन बदन में आग लग जाती थी। कहते- अगर ये मेरे बेटे होते तो एक दिन की पिटाई में इन्हें ठीक कर देता।

    इस पर भला मुझे अविश्‍वास क्यों होता? बचपन में वे मुझे इतनी भीषण मार मारते थे जितना कोई अपने बैल को भी न मारता होगा।

    एक दिन प्रतीक को देर तक सोता देखकर दादा से न रहा गया। बोले- उसे जगाकर मेरे सामने पेश करो। एक घंटे बाद प्रतीक पेश हुए तो बोले- सामने बैठो। आज मैं तुम्हारा इम्तहान लूंगा। बताओ, प्रिंस ऑफ बेल्स को गद्दी से क्यों उतारा गया?

    प्रतीक विज्ञान वर्ग के विद्यार्थी थे। चुप रह गये।

    -नहीं याद है न। इसलिए कि उनकी रानी पतुरिया थीं। खानदान पर उसका असर न पड़े इसलिए पाँच साल बाद उन्हें गद्दी से उतारा गया। प्रिंस ऑफ वेल्स के बड़े होने तक तेरह साल महारानी विक्टोरिया ने गद्दी संभाली थी और प्रिंस के उतरने के बाद एडवर्ड...

    -आपको इतना सब कैसे याद है दादा, सत्तासी साल की उम्र में? मैंने आश्‍चर्य से पूछा।

    -अरे, पढ़ाया गया था तो याद नहीं रहेगा।

    -प्रतीक को तो नहीं याद रहता।

    -प्रतीक खानदान की नाक कटायेंगे। ये आठ बजे तक सोते हैं। एक दिन स्कूल जाते हैं तो एक दिन नहीं जाते। हमारे खानदान में एक से एक गुणी हुए हैं। आगे गये हैं।

    -मैं भी आगे जाऊँगा।

    -कहाँ जाओगे?

    -ऑस्ट्रेलिया

    किसी की समझ में नहीं आया कि यह ऑस्ट्रेलिया कहाँ से आ गया?

    लेकिन प्रतीक ऑस्ट्रेलिया गये। न सिर्फ गये बल्कि वहीं के होकर रह गये।

    जाते समय दादा ने उनसे कहा कि वहाँ के मूल निवासियों का हाल चाल पता करके लिखना। सुनते हैं अंग्रेजों ने उन्हें सौ साल के अंदर ही मार-मार कर खतम कर दिया।

    -इसको भी पढ़ाया गया था दादा?

    -इसको अंग्रेज क्यो पढ़ाते? लेकिन पाप छिपता थोड़े है। हो सकता है कुछ लोगों को बचा कर रखा हो। शरीफ बनने के लिए।

    दादा की बड़ी इच्छा थी कि वे ऑस्ट्रेलिया घूमने जायें। वहाँ की मरीनो भेड़ों का झुंड देखना चाहते थे। देश में तो घूमते ही रहते थे। दुबारा ताजमहल देखने हवील चेयर पर बैठकर गये थे।

    दुबारा क्यों? पूछने पर कहा कि पहली बार बचपन में देखा था। तब प्रेम की तासीर से अनजान थे।

    प्रतीक कह गये थे- बाबा पासपोर्ट बनवा लीजिए। अगली बार आयेंगे तो आपको लेकर चलेंगे। दादा के निधन की खबर पाकर बहुत पछताए- ऐसा जानता तो पहले लाकर घुमा देता।


    हम ऑस्ट्रेलिया की धरती पर उतरे तो रात थी। दूसरे शहरों की तरह मेलबोर्न भी बिजली की रोशनी में जगमगा रहा था। लेकिन सबेरे उठकर देखा तो चौंक गया। इतना निर्मल नीला आकाश! ऑस्ट्रेलिया वालों ने अपने आकाश में नीले रंग से पेंट करा दिया है क्या?

    यह मौसम सर्दी की समाप्ति और गर्मी के प्रारंभ का था। प्रातः भ्रमण पर निकले तो देखा मुख्य सड़क और घरों की पंक्ति के बीच टहलने और साइकिलिंग के लिए एक से दो मीटर तक की चौड़ाई वाली एक अलग वीथी बनायी गयी है। प्रत्येक घर के सामने लान में घास के अलावा नाना प्रकार के फूल और रंगीन पत्तियों वाले पौधे। रंगीन हेज। हर लान के पौधे अलग। अगल-बगल से साम्य नहीं। गुलाब के एक ही पेड़ में लगी डालियों में अलग-अलग रंग के फूल। आकार में इतने बड़े मानो गुलाब नहीं डहेलिया हैं। लाल, गुलाबी, पीले, मैरून, सफेद और छींट की डिजाइन वाली पत्तियाँ।

    मेलबोर्न का यह भाग बाहरी इलाके में आठ दस साल पहले बसा है। जगह इफराद है। ज्यादातर प्लाट बड़े-बडे़ हैं। हर मकान के आगे पीछे लान। ड्राइंग डाइनिंग के अलावा गेस्ट रूम, चार बेड रूम, एक कान्फ्रेंस हाल, जिनके मकान दो मंजिले हैं उनमें दो बेड रूम पहली मंजिल पर भी। अगल-बगल दो गाड़ियाँ खड़ी हो जायें इतना बड़ा गैरेज। मकान तो सेन्ट्रली वातानुकूलित है ही, गैरेज में भी ए.सी.। जिनका परिवार बड़ा हो उनके लिए तो ठीक, लेकिन प्रतीक दोनो प्राणी के लिए तो एक ही बेड रूम काफी है। फिर इतनी बिजली खर्च करने और साफ-सफाई करने का क्या मतलब? सुनकर पत्नी ने आँख तरेर कर कड़ाई से बरजा- आप अपनी ‘बुद्धी’ बचाकर रखिए। लखनऊ में खर्च करने के लिए।

    सड़क के किनारे-किनारे मीलों लम्बे पार्क। बीच-बीच में पानी की बहती धारायें। ऊपर बने पुल से गुजरते वाहन। नीचे चोंच से पंख साफ करते जलचर। पार्क के बीच दो पंक्तियों में लगाये गये ऊँचे-ऊँचे पेड़ और बीच में कच्चा रास्ता। उनकी छाया में टहलिए। जैसे सारा शहर ही एक बहुत बड़ा बगीचा हो। क्षितिज तक नजर जाने के पहले आपकी नजर को कम ऊँचाई वाली, दूर तक पसरी हरी भरी पाहाड़ियाँ कैद कर लेंगी। रात में इन पर चमकती बिजली की मालाएं, जैसे आकाश के तारे क्षितिज के नीचे तक उतर आये हों।

    पैदल टहलने वालों को सड़क पार करने के लिए खास इंतजाम। किनारे गड़े लाइट के खंभे पर, कमरभर ऊँचाई पर एक हरा गोल बटन लगा है। उस बटन को दबाइये। घंटी बजने लगेगी और दस बीस सेकेंड के अंदर ट्रैफिक के लिए सिगनल लाल और आपके लिए हरा हो जायेगा। गाड़ियां रुक जायेगी, आप पार हो जायेंगे। जो अक्सर विदेश यात्रा करते हैं उनके लिए यह मामूली बात होगी लेकिन मेरे लिए जो अपने शहर में जान हथेली पर लेकर पों पों की कर्कश ध्वनि से घबराया हुआ सड़क पार करता रहा हो, यह इंतजाम सुकून से भर गया। हार्न तो कोई बजाता ही नहीं। उसकी आवाज सुनने को तरस गये। कई दिनों बाद कहीं पलभर के लिए कान में पड़ी तो अच्छा लगा।

    यहाँ प्रातः भ्रमण करने वाले कम ही मिले। चार-पाँच कि.मी. के भ्रमण पथ पर तीन चार लोग। एकाध गोरे, बाकी सभी भारतीय बुजुर्ग। पगड़ी दाढ़ी से सहज पहचाने जाने वाले सरदार। नयी पीढ़ी ऑफिस जाने की जल्दी में रहती है। सामने पड़ने पर सभी मुस्करा कर हेलो और ‘मार्निंग’ करते हैं। अजनबी चेहरा लेकर निरासक्त गुजर जाना शिष्टाचार के विरूद्ध माना जाता है।

    चिड़ियो का झुंड उसी तरह चहचहाता हुआ सबेरे-सबेरे आकाश मार्ग से गुजरता दिखता है, चील उसी तरह पंख फैलाये पतंग की तरह हवा में तैरती दिखती है जैसे लखनऊ के आकाश पर। सफेद जलचर उसी तरह पंक्ति वद्ध होकर झील में तैरते हुए कूजते हैं। पार्कों में और यात्रा पथ के अगल-बगल किलहँटी, गौरेया, कबूतर और तोतों के जोड़े चुगते मिल जायेगे। ए चारो आकार-प्रकार और बोली-बानी में बिल्कुल हमारे यहाँ के पक्षियों की ही तरह हैं। बस कौवे थोड़ा मोटे और चींटियों की रफ्तार बहुत अधिक है।

    एक चिड़िया जोड़े में अलग विचरती दिखायी देती है। पार्क में भी और माल के सामने पार्किंग प्लेस पर भी। काले पंख पर सफेद मोटी धारी और नुकीली तेज चोंच वाली। नाम है मैगपायी (Magpai)। बहुत कर्कश आवाज वाली। बेटे ने बताया कि यह कभी-कभी सिर में टोंट मार देती है, खास कर मेटिंग सीजन में यदि आप उसके आवासीय क्षेत्र से गुजर रहे हों।

    पत्‍नी अपने पुराने नियम के अनुसार सबेरे पांच बजे यहाँ भी टहलने निकल जाती हैं। एक दिन लौटीं तो उनके हाथ में बथुए का पौधा था। काफी स्वस्थ पौधा। मोटे दल की पत्तियाँ। हम लोग मानने को तैयार नहीं कि यह बथुआ ही होगा। वे उसका साग बनाने को उत्सुक थीं। प्रतीक ने बताया कि मैं जबसे मेलबोर्न आया, बथुआ खोजता रहा लेकिन कहीं बिकता नहीं दिखा। होगा भी तो यह जंगली बथुआ होगा और कहीं इसकी तासीर नुकसान दायक न हो। लेकिन पत्नी ने कहा कि यह बथुआ है। पहले मैं इसे बना कर खाऊँगी। देखिएगा, सबेरे जीवित मिलूँगी। तब आप लोग भी खाइयेगा।

    अगले दिन मैं सबेरे चार बजे ही उनका हाल चाल लेने उनके उनके कमरे की ओर गया। वे सचमुच जीवित थीं और टहलने जाने की तैयारी कर रही थीं। उस शाम सभी ने इत्मीनान से बथुए का सगपहिता खाया। शनिवार को पत्नी बेटे-बहू को बथुआ दिखाने ले गयीं। एक खाली पड़े प्लाट में बथुए के हरे भरे पौधे लहलहा रहे थे। बिना सिंचाई के।

    -तुम यहाँ से मुफ्त में बथुआ ले जाया करो। पत्नी ने बहू को सलाह दी।

    -हाँ मम्मी। ले जायेंगे। गरिमा ने एक आज्ञाकारी बहू बनकर सलाह को आदेश की तरह स्वीकार किया। उसे आठ बजे ड्यूटी के लिए निकलना पड़ता है। पत्‍नी को छोड़ कर सबको पता है कि ऐसा नहीं होगा। प्रतीक ने माँ की पीठ सहलाते हुए बताया कि इसे यहाँ ‘वीड’ की श्रेणी में रखा गया है। कभी भी दवा छिड़क कर इसे नष्ट कर दिया जायेगा।

    हमारे मेलबोर्न आने की खुशी में आज अभिजीत पई ने डिनर पार्टी आयोजित की थी। प्रतीक की क्लास में तीन अन्य लड़के पढ़ने आये। महाराष्ट्र से अभिजीत, पंजाब से अमित बंसल और कराची से आज़म। फिर ये चारो लोग एक ही लाज में रहने लगे। धीरे-धीरे मित्र बन गये। चारों का विवाह हो गया। अब इन परिवारों ने मिलकर एक वृहद आँतरिक दुनिया बना ली है। छुट्टी के दिन अपने घर या किसी रेस्टोरेंट में मिलते और खाते-पीते हैं।

    अभिजीत मंगलौर के रहने वाले हैं। बम्बई में पले बढ़े हैं। साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। मराठी, कोंकड़ी, हिन्दी और अंग्रेजी बोलते हैं। उनकी पत्नी नेहाचार्या पई मेडिकल अफेयर एसोसिएट हैं। कोंकड़ी हैं और कोंकड़ी, हिन्दी, अंग्रेजी बोलती हैं। इन्होंने एक बहुत बड़े प्लाट पर पुरानी स्थापत्य शैली में बना भव्य मकान खरीदा है। जिसमें पीछे स्वीमिंग पूल और आउट हाउस है। पूल का पानी गरम करने के लिए मोटर लगी है। पानी के अंदर नीली लाइट है। बाहर पीली। उस शाम ठंड बढ़ गयी थी। पूल में गरम पानी प्रवाहित हो रहा था। भाप उठ रही थी। नेहा ने खुद सारा खाना बनाया था। दक्षिण भारतीय और कोंकड़ी व्यंजन। इनकी साढे़ तीन साल की बेटी है निहिरा- मराठी, कोंकड़ी और अंग्रेजी बोलती है। हिन्दी बोलने वाले का मुँह बहुत ध्यान से देखती है। नेहा ने बताया कि हिन्दी समझ लेती है लेकिन बोल नहीं पाती। हिन्दी में केवल एक गाना गाती है। हमारे जोर देने पर उसने गाकर सुनाया- हि हि हि हि हँसि देले रिंकिया के पापा।

    अमित के घर हम लोहड़ी के त्योहार पर आमंत्रित थे। अमित आर्किटेक्ट हैं और उनकी पत्नी उमा प्रोक्योरमेंट आफिसर। उनके आठ नौ महीने के बेटे का नाम अविन है। अमित का घर भी बहुत बड़ा है। उनका प्लाट गो मुखी है। यानी आगे कम तथा पीछे ज्यादा चौड़ा। दो प्लाट के बराबर जगह के आधे में मकान बना है तथा आधे में साज सज्जा तथा सॉस्कृतिक कार्यक्रम के लिए अस्थायी छाजन। चीनी टेराकोटा सैनिक की मूर्ति सुरक्षा का एहसास दिलाती है। उनके बगल के मकान में एक अफगानी परिवार रहता है। दोनों मकानो के लान आपस में जुडे़ हुए हैं और बीच का पार्टीशन ज्यादा ऊँचा नहीं है। अमित ने उन्हें दिन में ही बता दिया था कि आज वे त्योहार मनाएँगे जिसमें गाने बजाने से शोर होगा। So please Bear with me. यह भी बताया कि आग जलायी जायेगी। हो सकता है धुएं से आपका फायर एलार्म बजने लगे तो Please घबराये नहीं। अँधेरा होते-होते सत्तर अस्सी लोग पीछे के लान में जुट गये। पीली पगड़ी और कुरते में सरदार युवक, सुर्ख सूट दुपट्टे में उनकी जनानियाँ। बाल, वृद्ध। ढोल बजने लगा। लोहड़ी में आग लगायी गयी। भाँगड़ा शुरू हो गया। साथ में लयवद्ध तालियों के साथ गीत के बोल। समॉ बँध गया। अफगानी परिवार के सात-आठ बच्चे बच्चियाँ पहले से ही उत्सुकता पूर्वक झॉक रहे थे। भाँगड़ा शुरू होते ही तीन चार महिलाएँ भी निकल कर झाँकने लगीं।

    सड़क से गुजरती साठ सत्तर साल की एक पंजाबी महिला सिर पर सफेद चुन्नी सँभालते मुस्कराते आकर गेट पर खड़ी हो गयीं। मैंने देखा तो गेट खोल कर उनसे अंदर आने का अनुरोध किया। वे झिझकते हुए आयीं। बोलीं- टहलने निकले थे। लोहिड़ी का ढोल सुनकर रुक गये। अमित आ गये। हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया। फिर एक दो महिलाओं ने उन्हें घेर कर नाचने का अनुरोध किया। वे नकली सफेद दॉतों से हँसते और ताली बजाते हुए नाचने लगीं। अफगानी परिवार लगभग अंत तक अपने लान और बरामदे में खड़ा कार्यक्रम का आनंद लेता रहा।

    आजम कराची से हैं और सिस्टम इंजीनियर हैं। उनकी पत्नी कँवल डाक्टर हैं और पब्लिक हेल्थ में काम करती हैं। आजम बातें बहुत लच्छेदार करते हैं और उनकी पत्‍नी उनसे भी बढ़कर। आजम के वालिद अमेरिका कमाने गये तो तीस साल तक तकनीकी कारणों से पाकिस्तान नहीं लौट पाये। आजम की माँ ने अकेले आजम और उनकी बहन की परवरिस की। अब उनकी माँ और बहन को अमेरिका जाने का वीसा मिल गया है इस बार आजम अपनी पत्नी के साथ उन लोगों से मिलने अमेरिका गये थे।

    हम लोगों के लगभग शाकाहारी होने की बात सुन कर कँवल असमंजस में पड़ गयीं। क्या बनाएँ, क्या खिलायें? ग्यारह बारह खाने वाले। कोई साउथ इंडियन पसंद वाला, कोई पंजाबी तड़के वाला। अंत में एक ऐसे रेस्टोरेंट में चलने का निश्‍चय किया जहाँ इस तरह का एशियायी खाना मिलता है। वेज, नानवेज, सी फूड, दारू, मिठाई, केक सब। लच्छेदार बातों और चीनियों से सम्बन्धित मजाक के साथ देर रात तक अलग-अलग व्यंजन आते रहे। रेस्टोरेंट का मुख्य द्वार बंद हो जाने के बाद तक।

    कँवल का बहुत मन है लखनऊ का इमामबाड़ा और भूलभुलैया देखने का। वे बताती हैं कि उनकी नानी लखनऊ की थीं।

    -आइये, स्वागत है।

    -पहली बात तो मोदी वीसा ही नहीं देंगे। दे भी दें और आ भी जाऊँ तो वहाँ लिंचिग न हो जाय। सीखचों के पीछे न कर दी जाऊँ। आजम यहाँ अकेले झींकते रह जायें।

    आजम के झींकने का खतरा पैदा हो गया था। कँवल तीन हफ्ते के लिए मार्च में पाकिस्तान गयी थी और एक हफ्ते बाद ही कोरोना का लाकडाउन हो गया। बड़ी मुश्किल से टिकट का इन्तजाम करके रातोरात वहाँ से निकल पायी।

    मेलबोर्न शहर पिछले कई वर्षों से रहने लायक शहरों में दुनिया के नम्बर वन पर रखा गया था। अब शायद यह स्थान ज्यूरिख या वियना को मिला है। आबादी का घनत्व यहाँ कम है और दुनिया के हर देश के निवासी पूरी शान्ति और सहयोग से रहते हैं। प्रतीक के घर के आसपास नजर दौड़ाने पर अफ्रीका के लोग भी मिलेगें और रूस, चेचेन्या के भी, लेबनान और तुर्की के भी, ईरानी भी। गोरे भी, चीनी भी, कोरियाई भी। उत्तर दक्षिण भारतीय, श्री लंकाई और मैक्सिकन भी। वह वैदिक आकाँक्षा यहाँ मूर्त रूप लेती दिखायी देती है जिसमें कहा गया है- यत्र विश्‍वं भवत्येक नीडम् अर्थात जहाँ पूरी दुनिया एक ही घोसले में बसती है।

    यहाँ चीनी, भारतीय (पाकिस्तानी, बँगलादेशी सहित) और अन्य गोरे-काले लोगों का अनुपात मुझे 4:3:3 लगा। लेकिन चीनी नियम तोड़ने में सबसे ज्यादा बदनाम हैं। वे हर नियम की काट खोज लेते हैं। कहीं कोई गलत काम हुआ तो पहला शक चीनी पर जाता है, दूसरा नाइजीरियाई या भारतीय पर। नवजात बच्चों के लिए एक डिब्बा बंद दूध आता है- A-Z मिल्क, कहते हैं इसमें बहुत उच्च श्रेणी के पोषक तत्व होते हैं। बहुत मँहगा है। इसकी ऑस्ट्रेलिया में बड़ी माँग है। चीनियों ने इसे खरीद कर चीन भेजना शुरू कर दिया। वहाँ यह चार पाँच गुने ज्यादा दाम पर बिक जाता है। ऑस्ट्रेलिया में इसका अकाल पड़ गया तो रोक लगायी गयी कि एक व्यक्ति को एक ही डिब्बा मिलेगा। तब तीन-चार चीनी बारी-बारी दिनभर यही खरीदने के काम में लग गये। रियल स्टेट के धन्धे में भी यही हुआ। चीनियों के पास बहुत पैसा है। वे मकान में पैसा लगाने लगे। मकानों के दाम आसमान छूने लगे। रहने वाला कोई नहीं। तब सरकार ने प्रतिबंध लगाया कि मकान खाली रहेगा तो भारी जुर्माना लगेगा। तब रियल स्टेट का बाजार नीचे आया। चीनी किस तरकीब से पैसा कमा लेगा, इसकी कल्पना करना बाकी लोगों के लिए कठिन है।

    एक दिन एक संकट में पड़ गया। चार-पाँच दिन पहले मैं झील के किनारे बने पैदल पथ पर टहल रहा था तो चेन में बँधे एक भारी भरकम भूरे कुत्ते को टहलाते हुए सामने से एक युवक आया। यह जानकर कि यहाँ सामने पड़ने पर सब एक दूसरे को हेलो हाय करते हैं, कुत्ता मेरी ओर देखने लगा तो मैंने उसे हेलो करने के लिए हल्की सी सीटी बजाई। उसने शायद जरा सी पूँछ हिलायी और बगल से गुजरा। मैंने पीछे मुड़कर उसे देखा। वह भी मुड़कर देख रहा था। मैंने फिर सीटी बजाई। अब वह रुक गया। पट्टा खींचने पर भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं। कुत्ते के मालिक ने नाराजगी दिखाते हुए कहा- It amounts to teasing the dog. मैंने कहा- Sorry और मन में कहा- Tease तो तुम हो रहे हो। दिल से दिल के रिस्ते को समझने में अक्षम। मैं वहीं खड़ा रह गया। कुत्ता दूर तक मुड़-मुड़ कर देखता रहा। आज फिर टहलते हुए उसी जगह पहुँच रहा था कि सड़क पार के मकान का दरवाजा खुला और वही कुत्ता तेजी से बाहर निकला। पीछे हाथ में पट्टा लिए वही लड़का। शायद उसे कुत्ते के गले में पट्टा लगाने का अवसर नहीं मिला। लड़के ने उसे डाँटा या रुकने के लिए कहा पर कुत्ते पर कोई असर नहीं हुआ। वह सड़क पार करते हुए मेरी तरफ दौड़ा आ रहा था। मैं डर गया। वैसे कहीं के भी कुत्ते हों, मुझे कभी काटते नहीं। भौंकते हुए हमला करने के लिए दौड़ते हैं तब भी पास आकर रुक जाते हैं। बख्स देते हैं। बचपन से अब तक ऐसा बहुत बार हुआ है। पर वह देश का मामला था, यहाँ विदेश के कुत्ते का व्यवहार जाने कैसा हो। दिमाग में तुरंत सात सुई लगवाने की अनिवार्यता कौंध गयी।

    मैंने बचने के लिए सीटी मारी लेकिन उसके पास सुनने या प्रतिक्रिया देने के लिए समय नहीं था। पास से गुजर कर वह आगे गया और झील के किनारे से थोड़ा पहले एक जगह छोटे वृत्त में दो बार घूमकर निपटने लगा। एक मिनट से भी कम समय में वह फारिग हुआ और जब तक वह लड़का सड़क पार करके इस पार आया, वह पूँछ हिलाता उसके पास पहुँच गया। मैं उसकी नजर में कहीं था ही नहीं। मेरी साँस में साँस आयी।

    अखिलेश जी ने एक फोन नम्बर नोट कराते हुए कहा था कि वहाँ अपरिचित जगह में चाहें तो इनसे मिले। वे इंडिया आते हैं तो साहित्यकारों से मिलते हैं। मैंने उनका नम्बर मिलाया तो पता चला कि वे देहरादून में हैं। लेकिन उन्होंने अनीता बरार के बारे में बताया जो मेलबोर्न में ही रेडियो में एस.बी.एस. हिन्दी सेवा की प्रोग्राम एक्जिक्यूटिव हैं। बेटे ने बताया कि यह यहाँ का बहुत लोकप्रिय कार्यक्रम है और शाम को पाँच बजे हफ्ते में दो दिन ब्राडकास्ट होता है। वह आफिस से लौटते हुए प्रायः सुनता है। अनीता जी को फोन मिलाया तो वे खुश हुईं। कहा- मेरा आफिस मेलबोर्न मेन शहर में ही है। जब इधर आयें तो मेरे आफिस में भी पधारें।

    एक दिन हम चारो लोग सबेरे 11 बजे मुख्य शहर घूमने निकले। रास्ते में मोनास युनिवर्सिटी के हास्टल से अपने नाती मानवेन्द्र को लिया। मानवेन्द्र पर ऑस्ट्रेलिया का प्रभाव दो साल में ही परिलक्षित होने लगा है। ज्यादातर वे किसी का फोन नहीं उठाते। पढ़ने बैठे होते हैं तो मोबाइल की घंटी भी नहीं बजने देते। रेकाडैड आवाज सुनाई पड़ती है- राइटनाऊ आयम बिजी। प्लीज ड्राप वाइस मेसेज। कई बार तो प्रतीक उनसे मिलने गये और बिना मिले वापस होना पड़ा। सम्पर्क ही नहीं हो सका। और आपको हास्टल के कैम्पस में घुसने की अनुमति नहीं है।

    पार्किंग में ही दस पन्द्रह मिनट लग गये। कई मंजिल की विशाल पार्किंग। हजारों गाड़ियाँ। आटोमेटिक टिकटिंग। घुसते ही डिस्प्ले पर खाली पार्किंग की मंजिलवार संख्या लिखी मिलेगी। खोजिए और पार्क करिए। एक गाड़ी थोड़ी सी तिरछी खड़ी थी। प्रतीक ने कहा- जरूर यह किसी भारतीय या चीनी की हरकत होगी।

    भव्य बाजार, भव्य भवन, भव्य कैसिनो, कुर्सियों पर जमें भव्य झुर्रीदार चमकते चहकते रंगेपुते महिला चेहरे, कमर झुकाये बैठे पुरूष चेहरे भी। यारा नदी मेलबोर्न शहर के बीच से गुजरती है। इसके दोनों तटो पर साफ सुथरे लान। कबूतरों और बत्तखों के झुंड, उन्हें दाना-चारा डालते और फोटो खिंचाते लोग। उन्हें पकड़ने की कोशिश करते बच्चे। उनका मनोरंजन करता कोई बहुरुपिया। यहाँ आकर महसूस होता है कि मेलबोर्न में भी भीड़ रहती है।

    यहाँ श्रीमती जी का एक ही काम। जहाँ कोई भारतीय चेहरे वाली महिला दिखी, उससे पूछने लगतीं- कहाँ घर है? कब यहाँ आयीं? आदि। वह हिन्दी जान रही होती तो बात आगे बढ़ती। नहीं तो ये भी इंडिया-इंडिया कह कर मुस्कराती, वह भी। भारतीय चेहरों की कमी तो यहाँ थी नहीं। आन्ध्र की सॉवले चेहरे वाली कई लड़कियाँ यहाँ के एक माल में सिक्यूरिटी सर्विस में थी। अपने रंग से समानता के कारण इनसे सरिता जी को कुछ अतिरिक्त निकटता महसूस हो रही थी। ए लड़कियाँ हिन्दी बोल लेती थीं। पत्नी बात कर करके और मुस्करा-मुस्करा कर घंटे भर में थक भी गयीं और खुशी से पेट भी भर गया।

    अनीता जी को फोन किया गया तो वे अपने आफिस से निकल कर नीचे बाजार में ही आ गयीं। हम लोगों को एक रेस्टोरेंट में काफी पिलाया और कहा कि नेट से आपकी कुछ कहानियाँ पढ़ लूँ तो एक दिन आपके साक्षात्कार का कार्यक्रम रखते हैं।

    मुख्य बाजार में एक डेढ़ कि.मी. तक मेट्रो की सेवा फ्री है। हम लोगों ने भी इस सेवा का आनंद लिया। फिर एक पंजाबी ढाबे में खाना खाने गये। इस ढाबे में बैरे का काम करने वाली लड़कियाँ भी पंजाबी मूल की थीं। गोरी चिट्टी लम्बी, चमकते दाँतों और उजली मुस्कराहट वाली। प्रवेश करते ही बाध से बुनी एक मंजी (चारपायी/खटिया) बिछी थी जैसे अपने यहाँ सड़क के किनारे ढाबों पर रहती हैं। आप चाहें तो उस पर बैठ कर खायें। एक दीवार पर मक्के की बालियों का गुच्छा लटक रहा था। मीनू में छाछ भी था, सरों दा साग और मक्के दी रोटी भी। टेस्ट आफ पंजाब। टेस्ट आफ इंडिया। खाना रुचि का था और अपेक्षाकृत सस्ता भी।

    यारा नदी मेलबोर्न शहर की खूबसूरती में चार चाँद लगाती है। यह करीब 240 कि.मी. की यात्रा करके मेलबोर्न के आगे समुद्र में मिलती है। इसमें क्रूज और वोट चलती हैं। मेलबोर्न में सैलानियों के आकर्षण का एक मुख्य केन्द्र इसमें संचालित होने वाले क्रूज हैं। यात्रा के दौरान मेलबोर्न शहर का इतिहास तथा अन्य सम्बद्ध तथ्यों की जानकारी करायी जाती है। लेकिन पंजाबी ढाबे का खाना खाने के बाद एक कदम पैदल चलने की इच्छा नहीं थी। पैर घसीटते हुए ढाई तीन सौ गज पार्किंग तक गये और वापस हुए।

    यहाँ एक मार्केट है लिटिल इंडिया। भारतीय रुचि की सारी वस्तुएँ मिलती हैं। प्रतीक बताते हैं कि जब वे दस साल पहले यहाँ पढ़ने आये तो यहाँ मिठाई की एक सामान्य सी दुकान थी लेकिन अब तीन दुकाने हैं। शोरूम से बाहर गुलाबी रंग की जलेबी का छत्ता झॉक रहा था। जलेवी खरीद कर खायी गयी। पत्नी ने फरा बनाने के लिए चावल का आटा और मछली में प्रयोग के लिए राई खरीदी। लिट्टी में प्रयोग के लिए सत्तू खरीदा।

    बाल काटने की एक दुकान की मालकिन एक तीस पैंतीस वर्षीय लम्बी ताँबई रंग की श्रीलंकाई लड़की थी। काम करने वाली तीनों लड़कियाँ भी श्रीलंकाई। पाँच सात मिनट में उसने मुझे मूँड़ कर 15 डालर ले लिया। सब्जी खरीदने एक विशाल स्टोर में गये। करीब पचास हजार वर्ग फीट के हाल में देश-विदेश के फल और सब्जियाँ। यहाँ अरवी, बैंगन, मूली, अरवी के पत्ते, धनिया, लहसुन, अदरक, सोया, मेथी, पालक, गुच्छे में पके टमाटर। एक-एक गुच्छे में सात-आठ। बे मौसम का पका पीला आम देख हम ललच गये। पत्नी और बहू ने मिलकर चोखे के लिए बैंगन, सहिना के लिए अरवी के पत्ते और कच्चे पक्के आम खरीदे।

    मैं लखनऊ से मुनक्का ले जाना भूल गया था। भूल क्या गया था, सोचा जब सारी चीजें वहाँ मिलती हैं तो मुनक्का भी मिल जायेगा। मुनक्का भिगा कर खाइये तो पेट आसानी से साफ हो जाता है। इसलिए वापसी में हम एक अफगानी मेवे के विशाल माल में गये। यहाँ भाँति-भाँति के मेवों का पहाड़ लगा था। कहीं-कहीं अफगानी औरतें काला बुरका पहने अन्धाधुन्ध खरीदारी में जुटी थीं। हम भी मुनक्का खोजने में लगे। मुनक्का और किसमिस की बीसो प्रजातियाँ मिली लेकिन वह नहीं मिला जिसे मैं खोज रहा था। काउन्टर मैनेजर को आश्‍चर्य हुआ- ऐसा कैसे हो सकता है कि मेवे की कोई प्रजाति मेरे माल में न मिले। मैंने उसे बताया कि कत्थई रंग का होता है जिसके अंदर से तिकोनी आकृति के छोटे-छोटे दो या तीन बीज निकलते हैं। उसने खुद आकर ढूँढा और निराश के साथ उदास हो गया।

    सरिता जी सबेरे टहल कर लौटतीं, उनके हाथ में कोई न कोई जंगली फूल या पत्ती होती। वे बतातीं कि हिन्दुस्तान की मकोय, दूब, तितली, घास और मसी घास तो यहाँ भी है। पीले-पीले फूलों वाली बनपंखी भी, जिसे मिनी सूरजमुखी कह सकते हैं, लेकिन बेला, चमेली, गेंदा बगैरह नहीं दिखते। उनकी रुचि देखकर प्रतीक एक दिन उन्हें एक नर्सरी माल ले गये। नाम था- Bunnings Ware House उसकी विविधता और विशालता देख वे निहाल हो गयीं। आर्नामेंटल और फल वाले पौधों का यह माल लगभग एक फर्लांग के क्षेत्रफल में बना था। आधे क्षेत्र में हाल और आधा खुले आकाश तले। हर महादेश की वनस्पति फूल और पौधे। भारत के सेब, सन्तरे, अंगूर, नीबू, गेंदा, गुलाब, डहेलिया और पिटुनिया भी, मटर, प्लम, बैजयंती और खजूर भी। अनंत फल और फूल।

    कवर्ड एरिया में, इन फूल-पौधों की जानकारी देने के लिए कामन हाल, खाद, पेस्टिसाइड, व देखरेख करने से सम्बन्धित ब्रोसर। गार्डेनिंग के सारे औजार। यहीं आकर सबकुछ जानिए, सीखिए और खरीद कर ले जाइये। ब्रोसर में बेव साइट bunnings.com.au का उल्लेख था। इसे खोला तो पूरी दुनिया खुल गयी। पत्‍नी ने गुलाब और लान में डालने के लिए खाद के पैकेट और लेमन ग्रास का पौधा खरीदा।

    रविवार को निकले सोने की खान देखने ‘बैलाराट’। बैलाराट मेलबोर्न से 120 कि.मी. है। डेढ़ घन्टे का रास्ता। खाने-पीने का सामान लेकर सबेरे सात बजे निकले। सड़क बहुत ही अच्छी। घास के मैदानों में चरती गायों या भेड़ों के झुंड, फिर ऊँचे-ऊँचे विशाल पेड़ो वाले जंगल। कहीं-कहीं सड़क के किनारे लगे पेड़ों को छॉटकर हेज का आकार दे दिया गया था। पन्द्रह बीस फुट ऊँची हेज कट। आर-पार कुछ दिखे ही नहीं। मुग्ध कर देने वाले दृश्य।

    हमारे पहुँचने के पहले खान देखने पहुँचने वालो की गाड़ियों से पार्किंग भर चुकी थी। करीब साढ़े तीन-चार सौ गाड़ियाँ। हमें सबसे पीछे जगह मिली। टिकट लेकर अंदर गये। अब यह खान बंद हो चुकी है। जिस तरह उस समय खोदायी, सफाई, गलायी होती थी उसकी अनुकृति तैयार की गयी है। लाइट, साउंड का कार्यक्रम होता है। पानी का एक पतला बहता हुआ सोता है जिसमें आप सोना छानना चाहें तो छानने का झन्ना मिलता है। पत्नी और बहू सोना छानने में लग गयीं। आधे घंटे छानती ही रहीं। बहुत पतले-पतले कुछ पीले कण मिले। शायद रोज सबेरे या दिन में बीच-बीच में सोने के पतले कण पानी में मिला दिए जाते हैं ताकि लोगों की उत्सुकता बनी रहे और टिकट बिकते रहें। हम बंद खान में तीन मंजिल तक नीचे भी उतरे। पर्क्की इंटो की दीवारें और लकड़ी की सीढ़ियाँ। सोना पाने के लिए कितने जतन करता रहा है आदमी। इस खान में सोने का सबसे बड़ा टुकड़ा 1853 में पाया गया था जिसका वजन 60.800 किलो था। इसका नाम ‘वेलकम’ रखा गया था। बाद में एक इससे भी बड़ा टुकड़ा जून 1858 में पाया गया था जिसका वजन 68.98 किलो था।

    सोने के इतने बड़े-बड़े टुकड़े पाये जाने की शोहरत दुनिया में इतनी फैली कि 1855 से 1875 के बीच यहाँ बड़ी संख्या में चीनी आये। 1876 में इस क्षेत्र में सोने की खुदायी में 18000 चीनी खनिक और खानमालिक लगे थे जो यहाँ की कुल संख्या के 90 प्रतिशत थे। तब इनके आगमन पर रोक लगाने के लिए प्रतिबन्धात्मक उपाय किए गये। और स्थानीय लोगों को खनन के काम में आने से हतोत्साहित किया गया। जरूर अधिकारियों की स्मृति में ब्राजील की भुखमरी रही होगी। ब्राजील में सन् 1700 से 1713 के बीच खेती का काम करने वाले गुलामों को सोने की खुदायी में लगा दिया गया। खेती ठप्प हो गयी। भुखमरी फैल गयी। हालत इतनी खराब हुई कि जिंदा रहने के लिए अनाज के अभाव में अरबपति सोना खदान के मालिकों को कुत्ते, बिल्ली, चूहे, चिड़िया और चीटी-चीटे खाने पड़े। सरकार को खेती का काम करने वाले गुलामों को अन्य कार्य के लिए बिक्री करने पर प्रतिबंध लगाना पड़ा ताकि खाने के लिए अन्न उपजाया जा सके।

    पास में ही खान से सम्बन्धित एक म्यूजियम बनाया गया है जिसमें बहुत सारी जानकारी, फोटो और वीडियो संग्रहीत हैं। पास में ही एक विशाल नीले पानी की झील है जिसमें नाना प्रकार के असंख्य जलचर विहार कर रहे थे। वे दाना खिलाये जाने की उम्मीद में पास आते और कुछ न पाकर निराश वापस होते। हमें इस स्थिति की पूर्व जानकारी नहीं थी। हम खाली हाथ थे। उनसे Sorry बोलते रहे। लाइट साउंड का कार्यक्रम देखकर दस बजे हम मेलबोर्न के लिए चले।

    एक दिन निकले क्वाला और कंगारू देखने। क्वाला हल्के भूरे रंग के कुछ-कुछ बंदर जैसे मुँह वाले प्राणी होते हैं। पीले बन्दरों के आकार-प्रकार वाले लेकिन ऊधम मचाने, लड़ने और शोर मचाने से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। भागना तो जानते ही नहीं। अत्यंत शाँत और शर्मीले। एक खास वृक्ष पर रहते हैं और उसी की पत्तियाँ खाते हैं। ज्यादातर समय पत्तियों के बीच छिपे डाल पर बैठे सोते रहते हैं। शर्मीले इतने कि बिल्कुल पास आ जाने पर भी नजर नहीं मिलाते और धीरे-धीरे चलकर दूर चले जाते हैं। जब उन्हें आपसे कुछ लेना-देना ही नहीं है तो आप की संगत क्यों करें? वैसे तो क्वाला हर डाल पर अकेले ही बैठे दिखे लेकिन एक जगह एक मोटी डाल पर आमने सामने बैठे एक दूसरे की जूँ निकालते भी दिखे। पत्नी उनकी ओर उँगली से इशारा करते हुए बोलीं- वैसे तो आदमी बहुत पढ़ लिख गया, लेकिन इतनी समझदारी भी नहीं आयी जितनी इन क्वाला लोगों में है।

    वहाँ से हम लोग कंगारू देखने गये। कंगारू का रंग मटमैला और मुँह भेड़ जैसा होता है। पाँच फिट ऊँची जाली के घेरे के अंदर थे। देखकर पिछले पैरों पर कूदते हुए दौड़े आये। उनको खिलाने के लिए पैकेट में एक दानेदार आहार वहाँ बिकता है। पत्नी ने भी खरीद कर खिलाया। हथेली पर रखकर हाथ जाली के अंदर कर दिया, उन्होंने भेड़-बकरी की तरह खा लिया।

    कंगारू देख कर मुझे अपने सहपाठी राम नेवाज गुप्ता की याद आयी। शायद कक्षा सात की बात है। पुर्दुली मौलवी साहब भूगोल पढ़ाते हुए कंगारू के बारे में बता रहे थे।

    राम नेवाज ने खड़े होकर पूछा- जब पिछले दो पैरों पर चलता ही है तो कूद-कूद कर क्यों? आदमी की तरह एक-एक पैर उठा कर क्यों नहीं चलता?

    -नहीं चलता तो मैं क्या करूँ? मौलवी साहब ने डपटा- बैठ जाओ।

    आज पहली बार अपनी आँखों से कंगारुओं को कूद-कूद कर चलते देखकर सोच रहा हूँ कि क्या चिड़ियाघर के किसी ट्रेनर ने कंगारु के किसी बच्चे को आदमी की तरह एक-एक पैर रखकर चलने की ट्रेनिंग कभी दी? मेरा विश्वास है कि ट्रेनिंग मिलती तो कंगारुओं की नयी पीढ़ी अभी तक आदमी की तरह चलना सीख चुकी होती। दुनिया राम नेवाज को क्या जवाब देगी?

    दादा ने प्रतीक से बहुत पहले कहा था कि ऑस्ट्रेलिया जाकर वहाँ के मूल निवासियों के बारे में बताना। मैंने आते ही प्रतीक से कहा कि यहाँ के मूल निवासी जहाँ मिले मुझे दिखाओ। प्रतीक ने बताया कि वे यहाँ महानगरों में बहुत कम हैं, ज्यादातर ऊपर यानी उत्तर सुदूर में हैं। एक माओरी लड़की उन्होंने एअरपोर्ट पर दिखायी- भारी चेहरे, चौड़े स्वस्थ शरीर, हल्के लाल रंग की, दोनों पैर थोड़ा फैलाकर हाथ पीछे बाँधे खड़ी थी। योद्धा की मुद्रा, दृढ़ता की प्रतीक। देख कर अच्छा लगा। एक दिन बोटेनिकल गार्डेन में टहलते हुए पैतालीस-अड़तालीस वर्षीय एक माओरी जोड़ा मिला। स्त्री की गोद में एक बच्चा था। तॉबई रंग, चौड़ा चेहरा, बड़ी आँखें, भरा शरीर, चाल में मस्ती और नजर में निश्चिंतता। इस उम्र में भी फर्टिलिटी कायम थी। एक दिन सबेरे टहलते हुए देखा, पार्क में कुछ किशोर वास्केटबाल का अभ्यास कर रहे थे। इनमे चार काले, दो गोरे, एक सरदार (जूडे़ से लगा) सहित तीन भारतीय और तीन माओरी थे। इन मूल निवासियों के सम्पर्क में आने के बाद ऑस्ट्रेलिया की खोज करने वाले कैप्टन कुक ने 1770 में लिखा था- The natives of New Holland (Later Known as Australia) may appear to some to be the most wretched people upon earth but in reality they are far more happier then we Europeans.

    तो इतनी सुखी और सबल नश्‍ल को अँग्रेजों ने कैसे नष्ट किया? पीछे जाने पर पता चलता है यहाँ भी अंग्रेजों ने नृशंसता और छलछद्म के साथ-साथ लालच और गद्दारी जैसी मानवीय कमजोरियों को हथियार बनाया। उन्होंने लालच देकर इनमें से कुछ को फोड़कर अपने साथ मिलाया। संधि की और संधि तोड़ी। विश्‍वास में लेकर सहायता के रूप में कंबल और कपड़े बाँटे। इन कम्बलों और कपड़ों में चेचक के कीटाणु भरे थे जिसकी चपेट में आकर मूल निवासियों की आधी आबादी बिना अंग्रेजो द्वारा एक भी गोली खर्च किए साफ हो गयी। मूल निवासियों ने सशस्त्र विद्रोह भी किये। शस्त्र इनके पास थे ही क्या, भाले के सिवा, लेकिन वे लड़ते रहे। वे अनुभव से जान गये कि इनकी गोली कितनी दूर तक मार करती है यह भी कि एक गोली दागने के बाद इनको रूक कर दूसरी गोली भरनी पड़ती है। दागने और भरने के बीच लगने वाले इस अल्प समय के अन्तराल में वे दुश्‍मन पर टूट पड़ते। आगे दौड़ने वाले गोली खा जाते तो भी पीछे वाले एक-दो दुश्मनों को मार गिराते।

    इवोरा मूल के संघर्ष का नेतृत्व एक लम्बे समय तक Pemulway नाम का योद्धा करता रहा। उसे प्रथम या आदि विद्रोही कहा जाता है, इसका संघर्ष सन् 1788 में सेटलमेंट का पहला बेड़ा आष्ट्रेलिया पहुँचने के दो साल बाद ही शुरू हो गया था। जो एक दशक से अधिक समय तक चला। अँग्रेजों का सारा सैन्य बल उसे खोजता रहा और वह बार-बार हमले करता रहा। उसे जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए इनाम घोषित किया गया। उसे जून 1802 में गोली लगी। कहा जाता है कि उसे धोखे से मारा गया। इसके लिए उसके समुदाय के व्यक्ति को भेदिया बनाया गया। उसका सिर काट कर विजय की ट्राफी की तरह इंग्लैड भेजा गया। उसके बाद उसके संघर्ष का नेतृत्व उसका बेटा करता रहा जब तक कि 1810 में वह भी शहीद नहीं हो गया। नेशनल म्यूजियम में लगी Pemulway की मूर्ति को देखने से ही लगता है कि वह महामानव या अतिमानव रहा होगा। जब 2010 में प्रिंस विलियम ऑस्ट्रेलिया गये तो इवोरा मूल के लोगों ने माँग की कि उनके पुरखे Pemulway का सिर उन्हें लौटाया जाय।

    इसके बाद पर्थ के क्षेत्र में सक्रिय एक अन्य विद्रोही ‘यागान’ की बहुत प्रसिद्धि है जिसकी मूर्ति हैरिसन द्वीप पर लगी है। इस तरह के संघर्ष की एक लम्बी परम्परा रही है।

                                                                         

    सत्रह दिसम्बर 2019 को मेलबोर्न से उड़े क्राइस्ट चर्च के लिए। न्यूजीलैंड की 12 दिन की यात्रा की शुरूआत। हम पिता-पुत्र और सास-बहू। प्रतीक के मित्र अमित बंसल, उनकी पत्नी उमा और उनके पुत्र अविन। विजय जी रात दिल्ली से चलकर कल दस बजे सुबह क्राइस्टचर्च में हमारी यात्रा में शामिल हो जायेंगे।

    मेलबोर्न के इस एअरपोर्ट का सौन्दर्य देखते ही बनता है। विशाल लाउन्ज विवाह के जयमाल स्टेज जैसा सजाया गया है। पन्द्रह फीट ऊँचाई और डेढ़ सौ फीट लम्बाई वाला तृतीया के चाँद जैसा वक्राकार। उसी तरह माला की लड़ी जैसी बिजली की पीली झालरें और इनके बीच हरे बल्ब से लिखा गया- MELBOURN. तनिक भी शोर नहीं। सब कुछ शांतिपूर्ण तरीके से निपट गया। एक भीनी-भीनी खुशबू हवा में तैर रही थी। फ्लाइट शाम 6:35 की थी। आधा घंटा विलम्ब से उड़ी। कस्टम की जाँच में केला और नानवेज वर्गर निकलवा दिया गया। वेज वर्गर साथ ले जाने की छूट मिली।

    सुन्दर एअर होस्टेस तो पहले भी देख चुका हूँ। सिंगापुर और स्विस एअरवेज की होस्टेस का बड़ा नाम है। लेकिन सुन्दरता में मैं सबसे ज्यादा नम्बर दूँगा रायल जार्डेन की एअर होस्टेस को। सुन्दरता में भी, मुस्कराहट में भी और व्यवहार में भी। उनके आगे सब पानी भरें। लेकिन न्यूजीलैंड के इस प्लेन की सीटें बहुत आरामदायक थीं। सीट की चौड़ाई भी ज्यादा और पैरों के पास जगह भी काफी। पैसे वालों के लिए मौज की कोई सीमा नहीं है।

    न्यूजीलैंड में ठहरने के लिए छः अलग-अलग जगहों पर चार वेड रूम वाले मकान बुक कर लिए गये थे। कार क्राइस्ट चर्च में लेनी थी। दो परिवार के लिए दो कार। यहाँ ड्राइवर सहित कार बुकिंग का रिवाज नहीं है। खुद चलाइये। एअरपोर्ट से बाहर आकर कार की चाभी लीजिए और पार्किंग से कार, टंकी फुल करके मिलेगी। धुली-धुलाई हालत में मिलेगी और टंकी फुल करके धुली-धुलाई हालत में वापस करके जाइये।

    ठहरने के लिए बुक किया गया मकान एअरपोर्ट से 11 कि.मी. दूर था। हल्की बारिस हो रही थी। सड़क बिल्कुल खाली। गूगल के सहारे मकान तक पहुँचे। की बोर्ड से मकान की चाभी निकाली गयी। रिमोट से गैरेज खोलकर गाड़ियाँ अंदर की गयीं। लिविंग रूम, वेड रूम, किचन, बाथरूम सभी सुसज्जित और आवश्यक वस्तुओं साबुन, पेस्ट, तेल, तौलिया से युक्त। किचन में बिस्किट, मक्खन, चाय, चीनी, काफी आटा, तेल, कप-प्लेट, बर्तन, चूल्हा, हीटर, केतली, पानी जरूरत की हर चीज। वाईफाई का पासवर्ड फ्रिज पर चिपके कागज में दर्ज है। पासवर्ड डालिए नेट चालू। बाहर पानी बरस रहा है। ठंड बढ़ गयी है लेकिन मकान शीत ताप नियंत्रित है। कमरे का तापमान आपकी मुट्ठी में। दो बजे गये थे। खाना-पीना फ्लाइट में ही हो गया था। सो गये।

    सबेरे उठे। ऑगन का हिस्सा खोला गया। ऑगन के रूप में विशाल लान और किनारे-किनारे खिले हुए फूलों की झाड़ियाँ। एक किनारे बारवेक्यू स्टैड भी था। सूरज निकल आया था। पानी बंद था। आसमान साफ। पूरी प्रकृति नहाई धुली तरोताजा। हल्की-हल्की हवा में झूमती फूलों की डालियाँ। मन प्रसन्न हो गया।

    हम लोग चावल, दाल, आटा, कुकर, कड़ाही, मसाले, चबेना, मिठाई वगैरह साथ लेकर चले थे ताकि अपने प्रिय भोजन के अभाव में भूखा न रहना पड़े। हमारे साथ तीन गृहणियाँ थीं। सब रसोई की दिनचर्चा में लग गयीं। मैं चाय पीकर टहलने निकल गया।

    एक पार्क में एक सफेद कुत्ता अपनी बूढ़ी मालकिन को टहलाता मिला। एक अन्य काला कुत्ता एक बच्चे के साथ गेंद खेलता मिला। पार्क एक कि.मी. क्षेत्रफल का था। किनारे-किनारे ऊँचे पेड़। बीच में घास। पार्क के दूसरी ओर बने मकान अत्यन्त सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे हुए। फूलों से भरे लान। एक वृद्ध सज्जन सामने से आते दिखे और जब तक मैं उन्हें हेलो करने की सोचूँ उन्होंने मुस्कराकर मार्निंग कहा। घंटे भर टहलने में सड़क पर दो-तीन लोग और तीन-चार गाड़ियाँ ही गुजरती दिखीं। यहाँ का सूरज भी झाड़-पोंछ कर चमकाया गया लग रहा था।

    
    नहा धोकर नास्ता किए और निकले 190 कि.मी. दूर काईकोरा समुद्र तट पर व्हेल देखने। सारा रास्ता चिकनी सर्पिल सड़क और ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से सजा हुआ। क्रूज हमें 01:15 पर समुद्र में ले जाने वाला था लेकिन यहाँ पहुँचने पर पता चला कि आज समुद्र गुस्से में है इसलिए क्रूज सेवा ठप्प कर दी गयी है। थोड़ी दूर पर कच्चे रनवे वाला एअरपोर्ट था। यहाँ दो और चार सीट वाले कई छोटे-छोटे विमान और हेलीकाप्टर खडे़ थे। क्रूज बंद होने से विमान और हेलीकाप्टर आपरेटरों की बन आयी थी। हम भी टिकट खरीद कर प्रतीक्षारत हुए। एक घंटे बाद नम्बर आया। हम पहली बार हेलीकाप्टर में आरूढ़ हुए। कुछ कि.मी. चलकर, पहाड़ पार करके पायलट समुद्र के पानी के ऊपर आया और व्हेलों की ओर इशारा करके दिखाने लगा। पानी की ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं। सच तो यह है कि हमें एक भी साबुत व्हेल नजर नहीं आयी। लहरों की विकरालता देखकर डर भी रहे थे कि कहीं पानी में गिर गये तो क्या होगा? पत्‍नी ने कई बार दिखाने की कोशिश की तो जो भी गहरी काली छाया दिखी उसी को व्हेल मान कर खुश हो गये। पायलट से कहा कि अब लौटो भइया। वापसी एक अन्य रास्ते से थी। इस रास्ते पर समुंद्र के किनारे पड़े बड़े-बड़े बोल्डर्स पर सैकड़ों सील बैठे धूप सेंक रहे थे।

    वापसी का यह रास्ता भी उतना ही हराभरा और ऊँचा-नीचा रमणीक था। क्राइस्ट चर्च तक वापस आते-आते शाम हो गयी। एक इंडियन स्टोर पर दूध, राजमा, हल्दी, जीरा, आलिव आयल, नमक, पानी और बर्तन मॉजने का लिक्वड साबुन खरीदा गया। कड़ाही माजने में इसकी जरूरत पड़ती है।

    दोपहर में विजय जी भी दिल्ली से आ गये थे। उठे आठ बजे। देर तक पकाते खाते रहे। आज क्राइस्ट चर्च से लेक टेकापू फिर लेक पुकाकी फिर माउंट कुक तक जाना था। माउंट कुक पर चढ़कर बरफ देखना था और लौट कर टि्विजल में रूकना था। दो सौ कि.मी. की दूरी। दस बजे निकले। रास्ते में कई दर्शनीय स्थल। सड़क के दोनों तरफ तार से घिरे बड़े-बड़े घास के मैदान। उनमें चरती गायों, हिरनों और भेड़ो के झुंड। कहीं-कहीं ईमू भी। बीच-बीच में आधे-आधे कि.मी. तक लम्बे खेत। उनमें खड़ी डेढ़-दो फीट ऊँची गेहूँ की पकी अधपकी फसल। आधे-आधे कि.मी. तक लम्बी दैत्याकार ऊँची स्प्रिंकल विधि से सिंचाई करने वाली चल मशीन। सड़क के दोनों तरफ रंग बिरंगे जंगली फूल। क्षितिज पर दिखती बर्फ से ढकी धवल पर्वतमाला दूर तक साथ चलती रहीं। यही पर्वतमाला न्यूजीलैंड का राष्ट्रीय चिन्ह है। आगे रास्ते के दोनों तरफ एक खास तरह के फूल के मैदान मिले। नीले-गुलाबी एक डेढ़ फीट लम्बे बेलनाकर फूल। जैसे हमारे यहाँ नदी के किनारे खादर जमीन में कास का सफेद भुवा फूलता है। जिसके लिए तुलसीदास ने कहा है- फूली कास सकल महि छायी। जिमि वर्षा कृत प्रकट बुढ़ाई। कास का फूल बुढ़ापा दिखाता है, यह फूल यौवन की मस्ती में हिलोर ले रहा था। आगे दो दिन तक यह सड़क और नदी के बीच अपनी छटा बिखेरता रहा। इसका नाम Lupin है। सारे टूरिस्ट इसके बीच जाकर अपनी फोटो खींचते और वीडियो बनाते रहे। एकाध ने नाचते हुए वीडियो बनाए। सड़क के किनारे-किनारे सैकड़ों की संख्या में गाड़ियाँ खड़ी हो गयी थीं। इतनी ज्यादा कि आवागमन में अवरोध होने लगा था। फिर टेकापो झील मिली तो कई कि.मी. तक साथ चलती रही। वास्तव में यह टिकापो नदी है। लगभग यमुना के बराबर चौड़ी और यमुना से चार गुने चटख नीले पानी वाली। इस पर बीच-बीच में बाँध बनाकर इसे झील का रूप दिया गया है। बीच-बीच में दर्शनीय दृश्यावली पर रुकने और फोटोग्राफी करने के लिए हाल्ट बनाए गये हैं। ऐसे ही एक हाल्ट पर रुके तो चिड़ियों ने घेर लिया। सचमुच घेर लिया कि कुछ खिलाकर जाइये। उन्हें ब्रेड के टुकड़े खिलाये गये। यहाँ के कस्बे का नाम भी टिकापो है। यहाँ लंच पैक कराने के लिए रुके तो पानी की बड़ी चिड़ियों के साथ गौरेयों ने भी घेर लिया। इन्हें खिलाने के लिए खास दाने का पैकेट खरीदा गया। दाने झपटने के लिए चिड़ियों के दोनों दलों में युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गयी। गौरैयों का दल अपने से पाँच-छः गुनी बड़ी चिड़ियों से जान की बाजी लगाकर लड़ा। यहाँ की गौरैया भारत की गौरैया की कद काठी और रंग रूप की ही हैं। वे ब्रेड के टुकड़ों को हवा में ही लोक ले रही थीं।

    यहाँ नदियों, झीलों और पेड़-पौधों के नाम, पुरानी बस्तियों के नाम स्थानीय भाषा के हैं तथा बाद में विकसित हुए बड़े शहरों या पिकनिक स्पाट के नाम अंग्रेजी में हैं।

    टिकापो से चले माउन्ट कुक के लिए। रास्ते के बायें पहाड़ और दायें नदी। पहाड़ मीलो तक छोटे-छोटे पीले फूलों से आच्छादित और झील के नीले पानी में सफेद भूरे बादलों के अक्स। सच पूछिए तो शब्दों की सामर्थ्य नहीं है इस सौन्दर्य को व्यक्त करने की। जैसे पूरा लैंडस्केप ही किसी बड़ी पेंटिग का हिस्सा हो। न कहीं धूल, न कहीं कूड़ा, न कहीं पीले सूखे पत्ते। पहाड़, झील, आकाश और हवा में झूमते फूलों का निस्सीम विस्तार। फिर आसमान में काले बादल घिर आये और बरसात शुरू हो गयी। एक घंटे के करीब हम बरसते पानी में चलते रहे तब नदी के सूखे पेट में उतरे। उस पार माउन्ट कुक का बेस था। यहीं से हमें पर्वतारोहण करके बर्फ छूने जाना था पर बरसात के कारण वह कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा। काफी हाउस में काफी पीने गये। चार से छः सीटों वाली दस मेजों में से छः पर भारतीय, दो पर चीनी, एक पर योरपीय थे। एक टेबल खाली थी। यानी भारतीय पर्यटक यहाँ भी बहुसंख्यक थे। सूरज डूबने के साथ हम वापस हुए।

    आज का रात्रि विश्राम ट्विजल नाम के गाँव में था। गूगल के सहारे अपने निर्धारित घर में पहुँचे। यहाँ तीन अलग बेडरूम के अलावा एक बेडरूम में मल्टीस्टोरी बेड लगे थे। थ्री टायर, जैसे ट्रेन की बर्थ। लेकिन पर्याप्त चौड़ी। साथ में ऊपर जाने के लिए बगल में लगी सीढ़ी। शायद इसलिए कि यदि आपके साथ ज्यादा लोग हों तो मुश्किल न पेश आये।

यहाँ के लिविंग कम डाइनिंग हाल में एक तरफ आग जलाने की भी व्यवस्था थी। उसके लिए शीघ्र आग पकड़ लेने वाली लकड़ी का ढेर रखा था। दीवार के अन्दर बनी चिमनी से सारा धुँआ बाहर और शुद्ध ऑच आपकी ओर। पानी बरस जाने से जाड़ा बढ़ गया था। परिवार का हर सदस्य किचेन के काम में हाथ बॅटा रहा था। मुझे और विजय जी को काफी पीने का काम दिया गया। सोफे चिमनी के पास खिसका कर लोग देर तक आग सेंकते रहे।

    सबेरे मैं और विजय जी जल्दी जग गये। बाहर निकले तो आसमान साफ था। दिन निकल आया था। सोचा टहल आया जाय। हम सड़क पर आकर बायें मुड़े। यह गाँव घाटी में बसा था। तीन तरफ पहाड़ियाँ थीं। आगे टी पॉइट था। हम फिर बायें मुड़े। रास्ता इतना पेड़-पौधों और फूलों से हरा भरा था कि बात करते हुए काफी दूर निकल आये। यहाँ फिर टी पॉइंट था। पहले सोचा गया कि यहीं से वापस होना ठीक रहेगा क्योंकि अनजान जगह में भटक जाने का डर था। फिर सोचा गया कि जैसे दो बार अपने बायें मुड़कर चलते आये वैसे ही आगे भी दो बार बायें मुड़ेगे तो वहीं पहुँच जायेंगे जहाँ से चले थे। इसी गणना के अनुसार आगे दो बार बायें मुडे़ लेकिन अनुमान में कहीं थोड़ी सी गलती हो गयी। हम वहाँ नहीं पहुँचे जहाँ से चले थे। बूँदा-बाँदी भी शुरू हो गयी। यह अंदाजा था कि आस-पास की दो चार गलियों में से ही किसी में हमारा आवास है लेकिन हम दोनों ही लोगों को मकान का नम्बर नहीं याद था। नम्बर हमने देखा ही नहीं था। अब क्या करें। हमें साढे़ नौ बजे तक नास्ता करके चल पड़ना था। दस बजे का चेक आउट टाइम था। मैंने विजय जी से कहा कि प्रतीक को फोन करके कहिए, हम जहाँ हैं वहीं से हमें ले लें। विजय जी ने कहा कि मैं तो फोन ही लेकर नहीं चला। चार्जिंग में लगाया था। मेरे अपने फोन में नेट नहीं था। प्रतीक का न्यूजीलैंड का नम्बर भी नहीं सेब किया था। एक ही गाड़ी में हर जगह साथ-साथ रहना था तो इसकी जरूरत ही नहीं समझी। साढे़ आठ बज रहे थे। घबराहट होने लगी। भटकते-भटकते एक टूरिस्ट लाज दिखा। वहाँ जाकर मैनेजर को अपनी परेशानी बतानी चाही तो न मेरी अंग्रेजी उसकी समझ में आये, न उसकी मेरे। मैंने लिख कर बताया तो उसने लिख कर उत्तर दिया- I Can not help. Sorry.

    मैंने रोनी सूरत बनाकर फिर लिखा- Please find any solution. I am helpless. करीब पाँच मिनट तक वह अपना बिल बाउचर काटता रहा। इस बीच दो बार मैंने Please-Please किया। अंततः उसने फिर लिखा- Purchase Wi-Fi for 5 Doller and try on WhatsApp. मैंने लिखा- We both are penniless please lend me 5 dollar when my son comes, he will pay.

    वह भुनभुनाया, ध्यान से हम दोनों को देखा और मान गया। मैंने Wi-Fi लेकर बेटे के ऑस्ट्रेलिया वाले नम्बर पर वाट्सअप किया लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। फिर उसके उसी नम्बर पर काल किया तो उठ गया। जान में जान आयी।

    बेटे के आने पर मैनेजर ने हमारे बारे में कुछ कहा। मेरी समझ में नहीं आया। बेटे ने बताया- कह रहा था, आगे से इन्हें अकेले मत छोड़ना। मुझे लगा, मैनेजर ने और कुछ कहा होगा। बेटे ने पूरी बात नहीं बतायी। जो बच्चे मेले में खो जाते हैं उनकी मुसीबत का अंदाजा सही-सही आज ही लगा। दस बज चुके थे। सामान गाड़ी में लद चुका था। हाउस कीपिंग करने वालों की गाड़ी आकर घर के सामने खड़ी हो चुकी थी। हम दोनों ने जल्दी-जल्दी नास्ता किया और चल पडे़। ट्विजल से क्वीन्स टाउन के रास्ते पर।

    यह रास्ता भी उसी तरह अद्भुत है। स्टेट हाइवे 8 पर स्थित ओमारामा कस्बे से क्विलवर्न रोड पर मुड़िए तो 15 कि.मी. पर क्लेक्लिफ नाम के पहाड़ हैं। यहाँ के टूरिस्ट स्पाट में ऊँचा स्थान रखते हैं। पीले रंग के ये पहाड़ नंगे हैं। इन पर कोई बनस्पति नहीं है। न्यूजीलैंड के अन्य परिदृश्‍य से ये बिल्कुल अलग नजर आते हैं। यह व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं तथा प्रवेश द्वार पर एक लकड़ी के लट्ठ का अवरोधक लगाया गया है। प्रति कार 5 डालर की दर से भुगतान करिए। अवरोधक हटाइये और कार अंदर करके फिर अवरोधक लगा दीजिए। लेकिन भुगतान किसे करिए? कोई आदमी तो है नहीं। दरअसल अवरोधक के खंभे में ही एक लोहे का बाक्स टँगा है। इसका नाम है- Honesty Box इसमें 5 डालर डाल कर अपनी ईमानदारी का परिचय दीजिए। यह भी सूचना लगी है कि पास की हट में शहद की बोतलें बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। इनकी कीमत डिब्बे में डालिए और बोतल ले जाइये।

    विजय जी ईमान पर आधारित इस व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुए और निराश स्वर में बोले- हमारे यहाँ यह व्यवस्था होती तो शहद और Honesty Box दोनों गायब हो जाते। आगे कच्चा पथरीला रास्ता था। पार्किंग में दो गाड़ियाँ खड़ी थीं। हम भी गाड़ी खड़ी करके ऊपर जाने के लिए बनी पगडंडी पर आगे बढे़। पगडंडी के दोनों ओर देशी गुलाब की झाड़ियो की तहर कँटीली घनी झाड़ियाँ थीं। शायद यह जंगली गुलाब ही था। उसी तरह के लाल गुलाबी फूल। एक राजस्थानी युवक अपनी लड़की मित्र के साथ गपसप करते हुए ड्रोन उड़ा रहा था। लड़की उसके कौशल की सराहना कर रही थी। यहाँ बाथरूम की सुविधा नहीं थी पर जंगली गुलाब की झाड़ियाँ इतनी ऊँची और इतनी घनी थीं कि मुझे कोई असुविधा नहीं हुई।

    कई चोटियाँ अलग-अलग खड़ी थीं। इनकी मिट्टी नरम और कंकरीली थी और सैकड़ो साल में पानी के बरसने से खड़ी धारियों के रूप में कटाव की चित्रकारी बन गयी थी। जैसे अमेरिका में ग्रैंड कैनियन का कटाव अद्भुत लगता है, कुछ-कुछ उसी तरह। सबसे खास बात है किसी चीज में खासियत ढूँढ़ना और उसका प्रचार प्रसार करना। खासियत बताने पर खासियत दिखने भी लगती है। जिसको नहीं दिखती वह भी चुप्पी साध लेता है। अभी किसी टूर एजेन्सी की साइट पर जाकर देखिए तो इन्हीं पहाड़ो के ऐसे गजब के फोटो और वीडियो देखने को मिलेंगे कि आँखों से देखा गया सब कुछ फीका लगने लगेगा। यहाँ से हम फिर क्वीन्सटाउन की ओर बढे़।

    न्यूजीलैंड दो द्वीपों को मिलाकर बना है। नार्थ आईलैंड और साउथ आइलैंड। व्यापारिक और जीवन जगत की आवश्‍यक गतिविधियाँ उत्तरी आइलैंड में केन्द्रित हैं। दक्षिणी आईलैंड को केवल पर्यटन के लिए विकसित किया गया है। नदी हो, झील हो या पहाड़ हो, सबको पर्यटन के उद्देय से सजाया गया है। पशुओं को वाउन्डरी से घिरे चारागाह में केन्द्रित किया गया है। शेर, बाघ या भेड़िए जैसे हिंसक जानवर हैं नहीं जिनसे इन पालतू पशुओं को खतरा हो। अभी खबर छपी है कि एक भेंड सात साल बाद अपने मालिक के पास लौट कर आयी। वह एक अग्नि कॉड के दौरान जंगल में खो गयी थी। बाड़ों में पाले गये जानवर भी पर्यटन के सौन्दर्य में वृद्धि करने के लिए पाले गये लगते हैं। जानवरों के खुले विचरण न करने से जो पेड़ पौधे जहाँ लगा दीजिए वहीं सुरक्षित रहते हैं। चारो तरफ समुद्र है। पानी बरसता ही रहता है। पूरी जमीन सरकार की है। वह लीज पर इस शर्त के साथ जमीन के (होटल आदि के व्यवसाय में) उपयोग की अनुमति देती है कि लैंडस्केप की शक्ल बिगाड़ी नहीं जायेगी तथा पेड़-पौधों और पर्यावरण की रक्षा की जायेगी।

    लेक वाकाटीपू के किनारे-किनारे अरहर से थोड़ा छोटे झबरीले पौधों पर अरहर के फूल से चार गुना आकार के पीले फूल गुच्छे में खिले हुए थे। रुक कर इनके बीच खडे़ होकर फोटो खिंचाया गया। बीडियो बनाया गया। दूसरे किनारे झील के समांतर फैली लम्बी पहाड़ी पर ऊपर से नीचे तक मीलों लम्बाई में यही फूल खिले हुए थे। ठंडी नम हवा के झोके में लहरा रहे थे। कहीं-कहीं छोटे जलाषयों में लाल कमल भी खिले हुए दिखे। पहली बार इस झील में एक बूढ़ा माओरी छोटी पतली नाव को खेकर ले जाता दिखा। खिचड़ी दाढ़ी मूँछ वाले उस बूढ़े की भुजाओं की झूलती मॉसपेशियाँ तथा मोटी-मोटी जंघायें उसके विगत यौवन की गवाही दे रहीं थी। उसे देखकर हेमिग्वे के उपन्यास ओल्ड मैन ऐंड द सी के बूढ़े सेंटियागो की याद आ गयी।

    ट्विजल से करीब दो सौ कि.मी. रुकते-रुकाते आने के कारण हम क्वीन्स टाउन ढाई बजे के करीब पहुँचे। क्वीन्स टाउन बड़ा और व्यस्त शहर है। वाकाटीपू झील इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाती है। सोचा गया कि लंच बाहर करके अपने आवास पर चला जाय। पार्किंग की जगह ढूंढने लगे। बड़ी देर तक इस सिरे से उस सिरे तक चक्कर लगाने के बाद एक जगह मेन मार्केट में मिली तो बीस मिनट के लिए। फिर ढूँढना शुरू किए। आधे घंटे बाद काफी दूर झील के किनारे दो घंटे की पार्किंग मिली। यहाँ अलग-अलग स्थान पर पार्किंग का समय अलग-अलग है। आवंटित समय के बाद आपका वाहन उस स्थान पर खड़ा रह गया तो भारी जुरमाना देना होगा। इसी पद्धति से वे अपना ट्रैफिक नियंत्रित करते हैं। प्रतीक और अमित भारतीय भोजन का होटल खोजने गये। मिला एक- नाम था- The Taj यहाँ अमित की पसंदीदा डिस कढ़ी-चावल भी थी।

    आते-जाते एक रेस्टोरेंट के सामने ग्राहकों की लम्बी लाइन लगी देखी। नाम था- Furgburger. पता चला कि इस रेस्टोरेंट का बर्गर बहुत मषहूर है। एक बार U.K. के अंग्रेज पाप गायक ED Shaeron यहाँ आया। इस रेस्टोरेंट का बर्गर खाकर कमेंट किया Best Burger in the World. तबसे इसे खाने वालों का ताँता लगा रहता है। सबेरे रेस्टोरेंट खुलने से लेकर रात बारह बजे तक जब तक यह बंद नहीं हो जाता, लाइन लगी ही रहती है। लाइन में लगे हुए लोग अपना वीडियो बनाकर अपलोड करते हैं। इस पर गर्व करते हैं। अच्छा पागलपन है।

    भोजन करके हमने मार्केट का एक चक्कर लगाया फिर अपना आवास खोजने निकले। यहाँ का आवास एक पहाड़ी के ऊपर था। ऊपर से सारा बाजार और पार्क नजर आते थे। पहाड़ी का पानी बह कर सोते के रूप में नीचे आ रहा था और अविरल कल-कल की आवाज गूँज रही थी।

    करीब सौ फीट नीचे एक मैदान था। मैदान में गाड़ियाँ खड़ी थीं। बड़ी बसें भी और कारें भी। पास ही एक पंक्ति में छोटे-छोटे तम्बू लगे थे। एक किनारे पब्लिक टायलेट बने थे। निकास के रास्ते पर नीले रंग से रंगे हुए तीन बड़े-बड़े लोहे के कूड़ेदान रखे थे। वे अपनी क्षमता से ज्यादा भरे हुए थे और कूड़ा गाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे। तम्बुओं में वे लोग थे जो अपनी गाड़ी में सारी गृहस्थी लादकर घूमने के लिए निकले थे। इनमें बच्चे, औरतें, कुत्ते, बिल्ली सभी थे। प्रशासन इन्हें आवासीय स्थल उपलब्ध कराता है। पूरे न्यूजीलैंड में जहाँ भी गये, ऐसे टूरिस्ट दिखायी पडे़। थोड़े में गुजारे का इन्तजाम। इनका एक काला कुत्ता एक बच्चे के साथ गेंद खेल रहा था और एक अन्य कुत्ता तम्बू के प्रवेश द्वार पर सो रहा था।

    सबेरे नास्ता करके गये हिंडोला और स्लेज की सवारी और पैराग्लाइडिंग करने। संयोग से तुरंत पार्किंग की जगह मिल गयी। नीचे बेस से क्न्वेयर वेल्ट और घिर्री पर चल रहे तारों से बँधीं ट्राली चार-चार लोगों को ऊपर पहाड़ी पर ले जाती है। वहाँ से स्लेज जैसी गाड़ी में बैठ कर सेल्फ ड्राइव करते ढलान पर उतरते नीचे आइये। जितना रोमांच ट्राली पर बैठकर ऊपर जाने में था, उतना ही पहिएदार स्लेज गाड़ी में लुढ़कते हुए नीचे आने में। एक से एक बुढि़याँ अगल-बगल की गाड़ियों में धक्का मारती टकराती हँसती नीचे सरकती आ रही थीं। इन गाड़ियों को देखकर मुझे बचपन में दौड़ायी गयी अपनी खड़खड़िया की याद आयी। वैसी ही थीं बस इनमें ब्रेक का इन्तजाम था। खड़खड़िया पर बैठ कर बचपन में ही पेट भर गया था। यहाँ फिर बैठने का मन नहीं हुआ। मैंने पालने में सो रहे अविन की देखभाल का जिम्मा लेकर अमित और उमा को भी खड़खड़िया यात्रा के लिए मुक्त कर दिया। यहीं अपनी लड़की मित्र के साथ घूमता युवक मिला। मेरा हिन्दुस्तानी चेहरा देखकर उसने मुझसे उन दोनों की फोटो खींच देने का अनुरोध किया। बातचीत हुयी तो बताया कि वह भी लखनऊ का रहने वाला है। आईटी चौराहे पर समथर पेट्रोल पम्प उसी का है। अपनी जापानी मित्र के साथ घूमने के लिए आया है। यहाँ घूमने वालो में चीनी सबसे ज्यादा थे। दूसरे नम्बर पर भारतीय।

    हम लोग नीचे आकर काफी पीने लगे। इसके बाद पैराग्लाइडिंग करना था लेकिन हवा तेज हो जाने के कारण पैराग्लाइडिंग रोक दी गयी थी।

    यहाँ एक चर्चित साइट सीइंग जगह ग्लेनार्ची है। हम लोग ग्लेनार्ची देखने चले। सच पूछिए तो ग्लेनार्ची के बारे में शब्दों में कुछ भी नहीं बताया जा सकता सिवाय अहा, अहा कहने के। झील का, घोडे़ के ट्रैक का, फूलों का, चिड़ियो का ऐसा सुन्दर दृश्‍य। झील के ऊपर तेज हवा चल रही थी। उसी में एक लड़का रंगीन पाल ताने पतले लम्बे प्लास्टिक की स्की पर पानी के ऊपर फिसलता जा रहा था। अचानक हवा के विपरीत झोके से वह पाल और स्की समेत पानी में विलीन हो गया। आधे मिनट में उसका सिर बाहर निकला फिर स्की के एक हिस्से को बाहर निकाला, पाल तानने की कोशिश की। स्की पर बैठा, पाल ताना और खड़ा हो गया। फिर बह चला नहीं, उड़ चला। ग्लेनार्ची के फोटो और वीडियो नेट पर देखिए। अभिभूत हो जायेंगे।

    पास में ही एक सुन्दर काफी हाउस था जिसके लान में लोहे का बाज और लकड़ी की मूर्तियाँ सुषोभित थीं। हम लोग बाहर लगी मेजों के किनारे पड़ी बेंच पर बैठकर कुछ खाने-पीने लगे। तभी एक दुर्घटना घटी। बगल की मेज पर एक बच्चा अपने माँ-बाप के साथ वर्गर वगैरह खा रहा था, वह शायद वाशरूम जाने के लिए उठा तो उसकी माँ भी उठ गयी। इससे चिड़ियों को कुछ गलतफहमी हो गयी। आस-पास छत और पेड़ की डालों पर दर्जनों समुद्री चिड़िया बैठी इंतजार कर रही थीं। वे एक साथ उस मेज पर टूट पड़ी और पलक झपकते सारी खाद्य सामग्री साफ थी। चिड़ियो ने उनके खडे़ होने से समझा कि अब वे लोग जा रहे हैं और बची हुयी सामग्री पर उनका अधिकार है।

    मार्ग सूचक में 13 कि.मी. पर PARADISE होने की सूचना थी। जब ग्लेनार्ची इतनी सुन्दर है तो यहाँ का पैराडाइज कितना सुन्दर होगा। जीते जी पैराडाइज जाने का मौका मिल रहा था। हम चल पडे़। रास्ता पतला था। तीन चार कि.मी. जाने के बाद मुख्य रास्ता तनिक बायें मुड़ता था और वहीं से एक रास्ता दाहिने निकलता था। पैराडाइज को इंगित करने वाला कोई बोर्ड नहीं था। दाहिना रास्ता कच्चा था और उसे दुर्घटना बहुल बताते हुए धीमे चलने का निर्देश था। स्वर्ग का रास्ता खतरनाक क्यों है समझ में नहीं आया लेकिन हम इसी रास्ते पर मुड़ गये। आगे दोनों ओर पहाड़ियाँ थीं। एक जगह सड़क से बिल्कुल सटकर भेड़ों का रेवड़ चर रहा था। सफेद चमकदार स्वस्थ भेडे़ं। हजार से ज्यादा होंगी। तलहटी में फैली थी। हम लोग फोटो खींचने के लिए रुके। लगभग सभी ने एक साथ सिर घुमाकर हमारी तरफ देखा और एक टक देखती ही रहीं, जब तक कि हम लोग उतर कर उनका वीडियो न बनाने लगे। फ्लैस की चमक से वे कुछ सावधान हुयीं और पूरा रेवड़ धीरे-धीरे पहाड़ी की ओर जाने लगा।

    आगे जगह-जगह ऊदविलाव जैसे जीव सड़क पर वाहन से दुर्घटना ग्रस्त होकर मरे हुए मिलते रहे। रास्ता और संकरा हो गया। एक नाला पार करना पड़ा। तब सड़क विभाग की एक हट मिली जिसमें ताला लगा था और सड़क के किनारे एक बोर्ड पर लिखा था- Not Motorable Ahed. Paradise के बारे में कोई सूचना नहीं थी। तब वापस मुडे़। फिर उसी जगह आये जहाँ से दाहिने मुड़े थे अब फिर दाहिने मुड़े। आगे यह रास्ता भी कच्चा हो गया लेकिन एक जगह पैराडाइज तीन की.मी. का बोर्ड लगा था। आगे बढे़। पैराडाइज का प्रवेश द्वार आ गया। दो लकड़ी के खंभो पर एक पाँच फीट लम्बा सीमेंट के नीले रंग के पुते बोर्ड पर सफेद रंग से लिखा था पैराडाइज। आगे भी कच्चा व छोटे पत्थरों वाला रास्ता था। यहाँ उतरकर सभी ने बोर्ड के बगल खडे़ होकर फोटो खिंचाई फिर आगे बढे़।

    आगे दाहिने बायें दो पहाड़ियाँ थीं और बीच की पौन कि.मी. चौड़ी घाटी में पूर्ण शान्ति थी। हम लोग उतर कर पैदल चले। ठंडी हवा चेहरे पर लग रही थी और तेज धूप सिर पर। ठंडक और गर्मी का एहसास एक साथ हो रहा था। आगे बायीं तरफ एक पतला रास्ता पहाड़ी की ढलान पर बने एक घर की ओर और सामने का रास्ता एक कि.मी. दूर दिख रहे घर की ओर जा रहा था पर दोनों जगह बल्ली लगा कर रास्ते को अवरोधित किया गया था। लिखा था- Private Property. No Tress passing beyond this Point.

    बायी तरफ सन् 50 माडल का एक हाफ डाले का जर्जर ट्रक खड़ा था जिसके आगे के दोनों टायर गायब थे और पीछे के पिचके हुए। लग रहा था कि इसने आधी शताब्दी पहले पैराडाइज में प्रवेश किया होगा।

    यहाँ व्याप्त शान्ति ने ही इसका पैराडाइज नाम धराया होगा। बहरहाल जिस पैराडाइज की कल्पना करके हम यहाँ तक आये थे वह कहीं नहीं था। हम वापस लौटे।

    अगले दिन नौ बजे से ही नेट चेक करना शुरू किया गया। पता लगा कि दस-ग्यारह बजे तक हवा की रफ्तार कम होने पर पैराग्लाइडिंग की शुरूआत होगी।




    पैराग्लाइडिंग हमीं दो प्राणियों और विजय जी को करनी थी। प्रतीक और गरिमा को बंजी जंपिंग करनी थी और अमित व उमा बच्चे के साथ म्यूजियम जाने वाले थे।

पत्‍नी की उमर सत्तर साल जानकर टिकट बुक करने वाली लड़की ने उनसे पूछा- हवा में उठने के पहले दस पन्द्रह कदम दौड़ना पड़ता है, दौड़ लेगीं?

    पत्‍नी  ने कहा- यस यस।

    - डरेंगी तो नहीं?

    - नो-नो।

    ओके। लड़की मुस्करायी।

    
    टिकट लेकर हम तीनों लोग इंतजार करने लगे। पहले ट्राली से एक पहाड़ की चोटी पर गये फिर वहाँ से फोर व्हील गियर की मोटे टायर वाली जीप में बैठ कर 45° की चढ़ायी पर चढ़कर सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचे। पैरासूट फैला कर हवा का अनुकूलन परखा गया। पत्नी सबसे पहले उड़ने को आतुर थीं। उन्हें डर था कि हवा तेज हो जाने के कारण कहीं आज भी ग्लाइडिंग रोक न देना पड़े। उन्हें सबसे पहले बाँधा-छाना गया। वे उड़ीं, फिर विजय जी उड़े। तब तक हवा का रुख बदल गया। थोड़ी प्रतीक्षा के बाद झील को फेस करता हुआ मैं उड़ा।

    क्या अद्भुत नजारा था। एक तरफ हरी-भरी पहाड़ियाँ, दूसरी तरफ नीचे नीली झील, उसके किनारे बाजार। छोटे-छोटे दिखते वाहन और पेड़। पतले-पतले चौदह-पन्द्रह धागों के सहारे हवा में सन्तरण। मैं सचमुच आनंद विभोर हो गया। गाने लगा। हेलीकाप्टर पर उड़ने से कई गुना ज्यादा रोमांच। मुझे खुश देखकर मेरे उत्तोलक ने पूछा- सरकिलिंग लाइक करेंगे?

    -यस-यस। और उसने हवा में लट्टू की तरह चार-पाँच बार गोल-गोल घुमाया। धागों को कसने और ढीला करने से मन मुताबिक दायें-बायें जा सकते हैं। इच्छित जगह पर उतर सकते हैं। खतरे से बच सकते हैं।

    आधे घंटे की उड़ान थी। धीरे-धीरे एक मैदान में उतरे। अविस्मरणीय।

    
    यहाँ से गये बीस-बाइस कि.मी. दूर बंजी जंपिंग के लिए। पहाड़ियों के बीच नदी बहती है। दोनों पहाड़ियों को एक लोहे के पुल से जोड़ा गया है। इसी पुल के बीचो-बीच से कमर में रस्सी बाँध कर पचास-साठ फिट नीचे नदी के पानी में कूदना होता है। पानी की सतह छूने के पहले ही रस्सी तन जाती है और आदमी हवा में झूलने लगता है। रोमांचक खेल। ढेरों लड़के-लड़कियाँ अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे। प्रतीक और गरिमा ने जंपिंग किया फिर हम सब क्वीन्सटाउन लौटे। फर्गबर्गर के सामने अभी भी खरीददारों की लाइन लगी थी। दिन में मैंने एक अखबार खरीदा था। रात खा पीकर लेटा तो उसे पलटने लगा। एक खबर थी- Sense of Security wreched. जोएल वाकर सबेरे सोकर उठे तो देखा उनके घर में चोरी हो गयी थी। उनका T.V. वगैरह घरेलू सामान गायब था। कार भी गायब थी। बाद में कार कुछ दूर एक झाड़ी में मिली। इस जगह पर लोग घरों में ताला नहीं लगाते और कार की चाभी कार में ही लगी छोड़ देते हैं। वाकर का कहना था कि अब किसी दूसरी जगह रहने की सोचेंगे।

    अगले दिन सबेरे हम लगभग पौने दो सौ कि.मी. दूर टे एनाउ के लिए चले। टे एनाउ में हमें FIORDLAND NATION PARK LODGE में ठहरना था। यह झील के किनारे था।

    रात में रेस्टोरेंट में एक मैनेजर टाइप लड़का मिला जो बम्बई का था और होटल मैनेजमेंट कोर्स करके दो साल पहले इस एकांत में आया था। बताया कि इस अन्दरूनी भाग में नौकरी आसानी से मिल जाती है। यहाँ उसकी दोस्ती एक चीनी लड़की से हो गयी। वह चीनी लड़की भी इसी रेस्टोरेंट में दो साल पहले नौकरी करने आयी थी। अब दोनों ने विवाह कर लिया है। उन्हें होटल की ओर से स्टाफ क्वार्टर मिल गया है। बताया, सुखी हैं। बम्बई की याद तो बहुत आती है लेकिन याद से पेट तो नहीं भर सकता। वह चीनी लड़की भी साथ में खड़ी मुस्करा रही थी। उसने पत्नी की नाक की कील को छूकर देखा और खिलखिला कर हँसी।

    आगे बनाका झील थी। बनाका झील में किनारे से करीब सौ फीट दूर छः सात फीट गहरे पानी में अमरूद के पेड़ के आकार का यूक्लिप्टस जैसी पत्तियों वाला एक पेड़ खड़ा था। इस पेड़ का बड़ा माहात्म्य था। सारी वेब साइट इस पेड़ के विवरण से भरी थी। मौके पर भी कई बोर्डों पर इसका इतिहास और खासियत लिखी थी। इसी पेड़ को देखने और इसके साथ फोटो खिंचाने दूर-दूर से लोग आये थे। आज अवकाश के दिन भी पार्किंग में सौ सवा सौ गाड़ियाँ खड़ी थीं। इसकी खासियत यही थी कि यह पानी के अंदर अकेला सालों से खड़ा था। हमारे यहाँ तालाबों में अक्सर, पानी के अंदर डूबे ऐसे पेड़ दिखायी दे जाते हैं जिनकी ओर कोई देखता तक नहीं। प्रचार के बल पर कुछ भी बेच लीजिए। आगे का रास्ता माउन्ट एसपायरिंग नेशनल पार्क के क्षेत्र से होकर गुजरता है और इस पर प्राकृतिक दृश्‍यों और स्थलों की भरमार है लेकिन हमें लम्बी यात्रा करनी थी इसलिए चलते-चलते ही प्रकृति का आनंद ले रहे थे लेकिन एक स्थल ने जबरदस्ती रोक लिया।

    
    यह दो नदियो का संगम था। पास ही कहीं ऊँचाई से पानी गिर रहा था जिसकी कलकल ध्वनि दूर तक गूँज रही थी। नदी पर तार से लटकाया गया पुल बना था। करीब छः फीट चौड़ा और डेढ़ सौ फीट लम्बा, लकड़ी के फर्श वाला। चलने पर ऊपर नीचे और दायें बायें हिलता था। लगता था कि अब टूटा कि तब। इस पर चलने का अलग ही आनंद था। गिरने से बचने के लिए बार-बार रेलिंग पकड़नी पड़ती थी। लकड़ी के बने काफी लम्बे पैदल रास्ते पर चल कर संगम के पेटे में उतरे। गहरा नीला पानी। दोनों नदी का पानी मिल कर मोटी धारा बना रहा था। बरसात में इसमें बहने वाले पानी का अनुमान नदी की गहरायी और चौड़ाई देखकर सहज ही लगाया जा सकता था। अथाह जलराशि। इस समय पानी की गहरायी भी कम थी और इसका बहाव भी। दस पन्द्रह लोग नहा रहे थे। कुछ पास के पुल से पानी में कूद रहे थे। सबसे अधिक आकर्षण की केन्द्र एक लम्बी पतली यूरोपियन मूल की युवती थी जो बिकनी और ब्रा पहन कर जाने कब से नहा रही थी। पानी में कूद कर तैरती फिर बाहर निकलकर कुछ देर धूप सेंकती। फिर तैरती। हम लोग करीब आधे घंटे वहाँ रूके और उसका नहाना जारी रहा। ठंडे पानी का कोई असर नहीं। कितनी ताकत है इसके शरीर में। जाने किस चक्की का पिसा खाती है।

    एक बड़ी घाटी में सौ के करीब मकान बने थे। वहाँ के लोगों के रहने के लिए नहीं। टूरिस्टों के ठहरने के लिए। हमारा आवास उस स्थान से तनिक आगे अकेला था। निर्धारित जगह से चाभी निकाल कर खोला गया। खोलने के साथ ही बाहर बने स्वीमिंग पूल की मोटर चल गयी। पानी गरम होने और ऊपर नीचे प्रवाहित होने लगा। पता नहीं चला कि यह मकान में चाभी लगाने के साथ स्वतः चल पड़ा था कि इसे प्रतीक या अमित ने चलाया था। बहरहाल दिनभर चलने के बाद गरम पानी के कुंड में नहाकर थकान उतारने से ज्यादा प्रिय कार्य और क्या हो सकता था।

    मकान अंदर से भी बहुत अच्छा था। लकड़ी जलाने का प्रबन्ध था। डाइनिंग टेबल, सोफे, बेड, किचन के बर्तन, क्राकरी सभी बहुत उम्दा। एक और उल्लेखनीय बात। जैसे फूलदान में फूल सजाते हैं वैसे ही एक फूलदान में नर्रे सहित गेहूँ की पीली बालियाँ सजाई गयी थीं। वाह! गेहूँ की बालियों को यह सम्मान मिलना ही चाहिए लेकिन हमारी सोच में यह कभी नहीं आया। बाहर बायीं तरफ खस जैसी लाल घास की एक टटिया भी बांध कर खड़ी की गयी थी, जैसे हमारे यहाँ रहठे या सरपत की बनाते हैं। बूँदा-बाँदी तेज हो गयी थी। सब नहाने धोने चाय पान करने और गृहणियाँ आलू प्याज छीलने में लग गयीं। घिर रहे अंधेरे में टप-टप पड़ती बूँदों की ध्वनि जादुई प्रभाव पैदा कर रही थी। फायर प्लेस में आग जला दी गयी।

    
    सबेरे हम लोग ग्लेशियर देखने निकले। पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके चले तो पानी बंद था पर कुछ दूर जाते ही हल्की बूँदा बाँदी शुरू हो गयी। पहले पहाड़ी रास्ता मिला, ऊबड़-खाबड़, ऊँचा-नीचा। इस पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर दूरबीन से ग्लेशियर का नजारा लेने के व्यू स्पाट बनाये गये थे। फिर नीचे नदी के पेटे में उतरना था। इसी उतार से पहले एक झाड़ी के नीचे भारी शरीर की एक पचास वर्षीय अफ्रीकी मूल की महिला हवील चेयर पर बैठी दिखी। उसे बताया गया होगा कि नदी के पेटे में उसकी हवील चेयर नहीं चल पायेगी। नदी का पेटा सूखा और बड़े-बड़े पत्थरों से पटा था। केवल एक पतली धारा में पानी बह रहा था। पर इसका पाट बहुत चौड़ा था, पौन कि.मी. के करीब। गहरायी भी बहुत ज्यादा। बरसात में अथाह पानी रहता होगा। ग्लेषियर की सफेदी दूर से ही चमक रही थी पर जितना चलते जाइये उतना ही वह पीछे हटता जाता था। नदी के पेटे में आने जाने वालों की लम्बी पंक्ति दिख रही थी। अंततः ढाई तीन कि.मी. तक जाते-जाते मैं पस्त हो गया। रुक गया। वहीं ग्लेशियर की ओर पीठ करके फोटो खिंचायी गयी और मैंने अपनी यात्रा समाप्ति की घोषणा कर दी। पत्नी नाराज हुयीं- ऐसा कैसे हो सकता है? अब तो सामने ही बरफ दिख रही है।

    -अभी अपने ही पैरों पर चलकर लौटना भी पडे़गा।

    वे बिना अंत तक गये वापस लौटने को तैयार नहीं हुयीं। बेटे-बहू को लेकर आगे बढ़ गयीं। मैं विजय जी के साथ थकी चाल से वापस हुआ। गाड़ी में बैठ कर भुना चना खाते हुए थकान उतार रहा था तो बगल की गाड़ी की छत पर एक बाज आकर बैठा और हमें देखने लगा। मैंने उसे दिखा कर चने के कुछ दाने जमीन पर डाले तो वह उतर कर खाने लगा।

    विजय जी ने देखा तो बोले- यह तो बहुत सभ्य लग रहा है। हम लोगों की ओर के बाज तो साले शक्ल से ही बदमाष लगते हैं। मैंने उतर कर गाड़ी के आगे कुछ दाने डाले। वह इत्मीनान से खाता रहा। उसके एक पंजे में गुलाबी टैग लगा था। कई पर्यटक घेरा बना कर उसका फोटो लेने लगे लेकिन वह अविचलित रहा।

    सुबह दस बजे के करीब निकले। आज का गन्तव्य कमारा केवल 120 कि.मी. था। और आधे रास्ते के बाद हमारी सड़क बिल्कुल समुद्र का किनारा छू कर चल रही थी। एक तरफ बिना ओर-छोर का समुद्र और दूसरी तरफ पहाड़ी पर और सड़क के बगल खडे़ खजूर या ताड़ जैसे पेड़। समुद्र की ओर से आती तेज नमकीन हवाओं ने इन पेड़ों का चेहरा बिगाड़ दिया था। पेड़ो का भी और झाड़ियों का भी। समुद्र की ओर की इनकी आधी टहनियों का मुँह तेज हवा का थपेड़ा खाते-खाते स्थायी रूप से समुद्र की विपरीत दिशा में मुड़ गया था। रास्ते में कुछ मूल निवासी जैसे स्त्री-पुरूष और बच्चे नजर आये। ताड़ जैसे पत्तों से छायी हुयी दो-तीन झोपड़ियाँ। बाकी सारा रास्ता निर्जन। हमने इस क्षेत्र में पायी जाने वाली लम्बी पतली चोंच, गोल शरीर और खैरे बालों वाली कीवी चिड़ियों के बारे में सुना था जो उड़ नहीं पातीं और झाड़ियों के बीच रहती हैं पर हमें एक भी चिड़िया नहीं दिखी। कीवी के बारे में पता चला कि इनका शिकार बहुत तेजी से हो रहा है और दस बीस साल में ही आखिरी कीवी दुनिया से लुप्त हो जायेगी।

    लंच का समय हो गया था। बच्चे को फीड भी कराना था। गूगल पास में होकीटिका बाजार होने की सूचना दे रहा था। खोजने पर ‘प्रिया’ नाम के रेस्टोरेंट का पता लगा। इसके बंद होने का समय ढाई बजे था। यह दो बजे तक ग्राहकों का स्वागत करता था। हम ठीक दो बजे ही इसमें प्रविष्ट हुए।

    ‘प्रिया’ जैसा प्रिय नाम सुन कर हम वैसे ही खुश थे। पता चला कि रोटी भी मिलेगी, चावल भी, पीली दाल भी। और क्या चाहिए। डाइनिंग हाल बहुत अच्छा था। बाथरूम बहुत अच्छे थे। इतने अंदरूनी हिस्से के छोटे से इस बाजार में दो आदमी मिलकर यह रेस्टोरेंट चलाते हैं। एक इसके मालिक कम बैरे जो नेपाली मूल के लग रहे थे और टूटी- फूटी हिन्दी से काम चला रहे थे। दूसरे इनके कुक जो भारतीय भोजन बनाने के उस्ताद थे लेकिन जिनके दर्शन हम नहीं कर सके। आर्डर कर दिया गया। खाना आ गया। हम खाने लगे। उमा अपने बच्चे को फीडिंग कराने लगीं। फिर उमा ने खाना शुरू किया और रोटी लाने के लिए कहा।

    मालिक कम बैरे ने निर्लिप्त स्वर में कहा- बंद हो गया। समझ में नहीं आया। और दरयाफ्त की गयी तो साफ हुआ कि ढाई बज गया इसलिए किचन बंद हो गया।

    -अभी तो हमारा खाना खतम नहीं हुआ। बंद करने के पहले पूछना तो चाहिए था कि हमें और कुछ चाहिए?

    उसने दो बार साब-साब कहा।

    पर उस्ताद ने न सिर्फ किचन बंद कर दिया था बल्कि पीछे के रास्ते से अपने रूम पर जा चुका था। घड़ी 02:38 पीएम बता रही थी। उमा ने चावल से काम चलाया। स्वीट डिस में लड्डू मिला। बहुत रंगीन स्वादिष्ट सौंफ मिली। इलायची और मिसिरी भी।

    कमारा का घर भी अद्भुत था। कम से कम 60-70 साल पुराना, मोटे-मोटे लकड़ी के स्लीपर्स पर टिकी लाल खपरैल छत। भीतर से दुमंजिला। वैसी ही चमकीली लाल सीमेंट की फर्ष। विशालकाय सोफे। डाइनिंग टेबल और कुर्सियों की लकड़ियाँ काली आबनूसी। पीछे बहुत बड़ा लान। लान में किनारे-किनारे बडे़-बडे़ पेड़। ऑगन के अंतिम भाग में एक बडे़ कमरे में व्यायाम करने के उपकरण लगे थे। किसी पुराने शौकीन का घर लगता था।

    बगल वाले मकान का गोरा चालीस वर्षीय मालिक अपने लान और किनारे की घास काटते-काटते पसीने-पसीने हो रहा था। अभी धूप थी। उसकी बीबी और दस साल का बच्चा कटी हुयी घास एक छोटी ट्राली में भर रहे थे। हमारे दिमाग में गोरों की छवि हंटर चलाने वालो के रूप में दर्ज है। इस तरह पसीना बहाने वाले गोरे की छवि असमान्य लग रही थी।

    बाहर मैदान में बड़ी-बड़ी होर्डिंग लगी थीं। उसमें विवरण और फोटो थे कि कब कौन मूल निवासियों से संघर्ष के दौरान या द्वितीय विश्‍व युद्ध में शहीद हुआ। आस-पास की जगहों और विशेषताओं के बारे में भी इनमें सूचनाएँ दर्ज थीं।

    शाम होते ही चिड़ियों का रेला आया। इस घर के अंदर और बाहर के पेड़ों पर ही रोज इनका बसेरा होता होगा। उनके गुंजार से माहौल खुषनुमा हो गया। छोटी-बड़ी कई आकार प्रकार और रंग रूप की चिड़िया। यकीन नहीं हो रहा था कि अभी 50-60 कि.मी. दूर एक भी चिड़िया के दर्शन नहीं हो रहे थे।

    रात में देखने के लिए यहाँ थोड़ी दूर पर जुगनुओ से भरी एक गुफा की जानकारी मिली। खाना पीना खाकर मेरे अलावा सारे लोग देखने गये। लौट कर बताया कि गुफा की दीवार में चिपके अनगिनत जुगनू दिप-दिप रोशनी विखेर रहे थे। उनके प्रकाश से गुफा के अंदर हल्की चाँदनी जैसी उजास भर गयी थी। आज पहली बार मैंने जल्दी सो जाने की अपनी आदत को कोसा।

    अगले दिन क्राइस्ट चर्च पहुँच कर ऑस्ट्रेलिया की वापसी थी। रास्ते में एक गैरेज में दोनों गाड़ियाँ धुलवायी गयीं। टंकी फुल करायी गयी। खाना खाया गया और एअरपोर्ट पर पार्किंग करके गाड़ियों की चाभी एजेन्सी के काउन्टर पर जमा की गयी।

    एअर पोर्ट के अंदर पहुँचकर कुछ खा पी लेने का मन हुआ। प्रतीक ने मछली की एक जापानी डिस की तारीफ करते हुए कहा- बहुत स्वादिष्ट। नाम बताया- Teriyaki Salmon. एक खास पेस्ट में लिपटे हुए दो लम्बे पीस प्लेट के आर पार। बिना चिकनायी के। वाह। सचमुच अद्भुत स्वाद।

    इसे खाते हुए मैंने एक बार फिर अपने मित्र भीष्म प्रताप सिंह का एहसान माना जिन्होंने बचपन में रात में चोरी-चोरी मछली खिलाकर इसके स्वाद से अवगत कराया था। मैंने तुरंत इसका दाम इस डर से नहीं पूछा कि ज्यादा मँहगी जानकर मुँह का स्वाद कसैला हो जायेगा।

    अद्भुत देश है न्यूजीलैंड। दुनिया का स्वर्ग।


    चार महीना पहले सिडनी के उत्तर पश्चिम जंगलों में आग लगी थी जो अब आधे ऑस्ट्रेलिया में फैल गयी है। वन्य जीवो के जल कर मरने के दृश्‍य टी.वी. में रोज दिख रहे हैं। क्वाला तो इतने शांत होते हैं कि डाल पर बैठे-बैठे ही जल मरेंगे। बाकी जानवर भी कहाँ तक भागेंगें। दस बीस कि.मी. भागने से तो जान बचने वाली नहीं है। बहुत सारे ऑस्ट्रेलियाई जंगल में अकेले घर बना कर रहते हैं। उनके घर के बाहर कार के साथ-साथ हेलीकाप्टर भी खड़ा रहता है। वे आग से क्या-क्या बचाएँ? प्राण या सम्पत्ति? पेड़-पौधों के साथ जल कर काले पडे़ घरों के दृश्‍य देखकर मन सिहर उठता है। आग इतनी दूर तक फैल गयी है कि किसी-किसी दिन हजार कि.मी. दूर मेलबोर्न का आकाश भी धुँए से काला हो जाता है। यह धुँआ न्यूजीलैंड के आकाश तक पहुँच गया है।

    सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएँ आग बुझाने और राहत पहुँचाने के काम में लगी हैं। बहुत सारे युवा स्वयंसेवी, फायर फाइटर अपने संसाधनों से आग बुझाने में लगे हैं। ऐसे ही एक फायर फाइटर 28 वर्षीय सैमुएल मैकपाल के 30 दिसम्बर को जलकर मरने की खबर चल रही है जिसका पहला बच्चा मई 2020 में संभावित है।

    ऑस्ट्रेलिया में जंगल का क्षेत्र बहुत विशाल है और सारा क्षेत्र आपस में जुड़ा हुआ है। यहाँ जंगल में जो पेड़ सूख जाते हैं वे काटे नहीं जाते। अपनी जगह खडे़-खडे़ धूप पानी में सड़ते रहते हैं। पेड़ों से झड़ चुकी पत्तियों की परतें जमीन पर बिछती रहती हैं। इसलिए एक बार इनमें आग लग जाय तो उसे फैलने से रोकना या बुझा पाना असम्भव हो जाता है। इस विभीषिका के चलते इस बार नये वर्ष का उत्सव बहुत सीमित रहेगा। मेलबोर्न शहर में कुछ आतिशबाजी और प्रकाश संयोजन होने की खबर है पर मेरा मन उसे देखने जाने का नहीं है। मुझे उत्साहित न देखकर सभी लोगों ने जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया।

    अगले दिन हम चेरी गार्डेन और स्ट्राबेरी फार्म देखने गये। स्ट्राबेरी खुद खेत में जाकर तोड़िए। जितनी इच्छा हो मुफ्त में खाइये। जितनी साथ ले जाना चाहें उसी का पैसा देना होगा।

    यही स्थिति चेरी की भी है। अमरूद के आकार के चेरी के पेड़ों में जामुन की तरह कत्थई काली चेरी घौंद में फलती है। चढ़ कर तोड़ने के लिए एलुमिनियम की सीढ़ियाँ रहती हैं। जितना मरजी मुफ्त में खाइये और जितना साथ ले जाना चाहें, बाजार दर से आधे मूल्य पर ले जाइये।

    यहाँ हम दुबारा आये, भारत वापस आने के दो दिन पहले। तब सारी चेरी पक चुकी थीं। पेड़ों के नीचे भी जामुन की तरह बिछी थीं। पता चला कि कल के बाद यह फार्म बंद हो जायेगा। तब पेड़ में लगी इन चेरियों का क्या होगा? बताया गया कि इनको मजदूरों से तोड़वाना बहुत मंहगा सौदा है। ये इन्हीं पेड़ों में छोड़ दी जायेगी। पता नहीं कितना सच कितना झूठ।

    जंगल की आग देखने जाना तो संभव नहीं था। आगे रास्ता बंद कर दिया गया था। पर एक बहुत प्रसिद्ध समुद्र तट था स्क्वीकी बीच, जहाँ जाते हुए यहाँ के जंगलों की सघनता का कुछ अनुमान लगाया जा सकता था। स्क्वीकी यानी चरमराने या चुरचुराने वाला समुद्र तट। यह मेलबोर्न से 230 कि.मी. दूर था और रास्ता ऊँचा नीचा तथा टेढ़ा मेढ़ा था। बीच देखकर आँखें जुड़ा गयीं। सफेद क्वार्टज बालू के कण। सूखी बालू पर चलिए तो पैर चार इंच अंदर धंस जायें और चुर-चुर की आवाज आये। बीच-बीच में बड़े-बड़े ग्रेनाइट पत्थर। ढाल बहुत कम यानी आधे कि.मी. तक पानी में घुसते चले जाइये और पानी घुटने तक ही रहे। दो-दो तीन-तीन साल तक के बच्चे-बच्चियाँ तट पर बालू में खेल रहे थे। बालू में पैर पटक कर उसका रोना सुन रहे थे। हंस रहे थे। पानी आता और कभी-कभी उनकी फ्राक भी न भिगा पाता। समुद्र के अंदर छोटे-छोटे नीले पहाड़ इधर-उधर छितरे थे। हम लोग भी पानी में दूर तक गये फिर मैं आकर किनारे एक मोडे़ नुमा पत्थर पर बैठ गया। पत्थर की जड़ के पास तक लहर आयी और लौट गयी। मेरी नजर नीचे गयी। यह क्या? रीवा जैसे कीडे़ बालू के अंदर से निकलकर बिल खोदने में जुट गये। अभी वे जरूरत भर की बिल बना कर उसमें चैन से बैठे ही थे कि फिर लहर आयी और उनकी बिल में बालू भर गयी। लहर वापस गयी और वे फिर निकल कर खोदने लगे। यही क्रिया बार-बार। तो क्या ये खोदते-खोदते मर जायेगे और कभी चैन से बैठ नहीं पायेंगे?

    बचपन में बरसात के महीने में जहाँ गाय या भैंस गोबर कर देती थीं वहाँ थोड़ी देर में गोबडौरा कीड़े आते थे। वे गोबर की छोटी-छोटी गोली बना कर उल्टे होकर उस गोली को पिछले पैरों से ठेलते हुए (बैक गेयर में) ले जाते थे। उसकी जोड़ीदार बिल तैयार किए रहती थी। गोबडौरा उस बिल में गोली डालकर मिट्टी से बिल का मुँह बंद करता और फिर गोबर के ढेर के पास आता, अगली गोली ले जाने के लिए। वह दम नहीं मारता था। शायद डरता हो कि दूसरे गोबडौरे सारा गोबर उठा न ले जायें। वह सारा गोबर खतम करने के बाद ही आराम करेगा। पर गोबर कहाँ खतम होने वाला। गोबडौरे ढोते-ढोते थक कर उलट जाते। मर जाते। उनकी गोली बगल में पड़ी होती या कोई दूसरा गोबडौरा उसे लेकर भागा जा रहा होता।

    यही हाल इन समुद्री कीड़ों का होता होगा। लहर तो रातो दिन चल रही है। और क्या यही हाल हम मनुष्यो का नहीं है जो अपने को दुनिया का सबसे बुद्धिमान प्राणी मानता है।

    उदास मन लिए सबके पीछे-पीछे हम भी वापस हुए। रास्ते में पेड़-पौधों को देखते-देखते पत्‍नी बोलीं- हर जगह के पेड़-पौधे हैं, संतरा, सेब, अंगूर आदि फल भी हैं पर अपने देश के पेड़ नहीं दिखायी दिए- आम, जामुन, नीम, महुआ... मैंने समझाया- जो यहाँ आये वे अपने देश की बनस्पतियाँ लाये। इग्लैंड का कैप्टन कुक ढाई सौ साल पहले ऑस्ट्रेलिया के दो चक्कर लगा गया था। उस जमाने में तब का आधुनिकतम हथियार तोप अपनी जहाज पर लाद कर लाया था कि युद्ध करना पडे़ तो उसमें भी विजय हासिल कर सके। वह अपने देश के लिए जमीन हथियाने के लिए सारी जिंदगी समुद्री यात्राएँ ही करता रहा। लड़ता रहा और लड़ते-लड़ते ही मार डाला गया। सिर्फ पचास साल की उम्र में। अपने देश में तो समुद्री यात्रा का ही निषेध था। महात्मा गाँधी समुद्र पार गये तो लौट कर उन्हें भी दण्ड स्वरूप भोज देना पड़ा था।

    -यहाँ अँग्रेज कब आये?

    वैसे तो दूसरे यूरोपियन जहाजी पहले भी ऑस्ट्रेलिया पहुँचे थे किन्तु इस जमीन पर स्थायी रूप से अँग्रेजों की कालोनी बसाने के लिए अँग्रेज सरकार ने 19 अगस्त 1786 में निर्णय लिया। उसने कैप्टन आर्थर फिलिप को इस कालोनी का गवर्नर नियुक्त किया। आर्थर फिलिप इंग्लैंड से 13 मई 1787 को चला और बीच-बीच में रुक कर राशन पानी लेते हुए करीब साढे आठ महीने में 26 जनवरी 1788 को सिडनी कोव तट पर पहुंचा।

    -और जानती हो वह अपने साथ क्या-क्या लाया? वह यूरोप जैसी नयी दुनिया बसाने की योजना लेकर निकला था। उसके साथ ग्यारह जहाजों पर हजार से ज्यादा आदमी औरतें और बच्चे तो थे ही (ज्यादा संख्या सजायाफ्ता आदमी-औरतों और उनके बच्चों की) साथ ही घोड़े, गाय, बैल, सुअर, भेंड़, बकरी, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, मुर्गी और कपड़ा, हल, औजार, हथियार, अनाज, सेब सन्तरे, नीबू, स्टाबेरी, ओक, चेरी, गन्ना तथा अन्य सैकड़ो पेड़-पौधे और उनके बीज थे। उन्नीस हजार कि.मी. की यात्रा पर। और तबसे वे इस जीती या लूटी हुई दुनिया को सुन्दर बनाने में लगे हैं। तभी तो उनके देश में Honesty Box सुरक्षित रहते हैं।

    दो दिन पहले कहीं पढ़ा कि जे.एन.यू. कैम्पस में हिंसा के खिलाफ 12 जनवरी 2020 को पार्लियामेंट हाउस के सामने प्रदर्शन होगा। प्रदर्शन का कार्यक्रम दो लड़कियों नताशा सिंह रघुवंशी तथा सिफ्ती रियात ने बनाया था। दोनों ने जे.एन.यू से पढ़ाई की है। मेलबोर्न में हूँ तो इस साँकेतिक विरोध में जरूर भाग लेना चाहिए, यह मानकर मैं भी इसमें शामिल हुआ। मेरी पत्‍नी और बेटे भी साथ गये। इसी दिन चीनी नया वर्ष भी था। पार्लियामेंट के सामने भारी संख्या में चीनी स्त्री-पुरूष, बच्चे लाल गुब्बारों के साथ जमा हुए थे। उनके एक घंटे के कार्यक्रम के बाद हम लोग जुटे। नताशा और सिफ्ती अपने घर से सफेद कागज पर पोस्टर लिख कर लायी थीं। कुछ उन्होंने यहीं मौके पर लिखा। यहाँ के विश्‍वविद्यालयों और अन्य संस्थानों से लोग आये थे। यहीं इयान बुडवर्ड से मुलाकात हुई जो ट्रोबे युनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाते हैं। नताशा सिंह ने कार्यक्रम का संचालन किया। ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, 'हम देखेंगे’ तथा कुछ अन्य गीत गाये गये। कुछ लोगों ने अपने विचार व्यक्त किए। मैंने भी अपने संक्षिप्त भाषण में जे.एन.यू. हिंसा की निंदा की और पत्नी के साथ ‘Save Public Education’ का पोस्टर हाथ में लेकर फोटो खिंचाया।

    मछली के प्रति मेरी आसक्ति जानकर प्रतीक ने वापस लौटते हुए एक माल से तीन चार किलो Salmon मछली खरीदी और लाकर डीप फ्रीजर में भर दिया।

    -जब तक यहाँ हैं सुबह शाम खाते रहिए।

    पता चला कि यह बहुत नामी मछली मानी जाती है। यहाँ 33 डालर प्रति किलो के रेट से मिली थी। मैं अपनी आदद के अनुसार भारतीय रुपये में इसके मूल्य की गणना करने लगा।

    मैं मेलबोर्न का कोई पुस्तकालय देखना चाहता था। प्रतीक हमें Bunjil Place Library दिखाने ले गये। यह नगर पालिका की लायब्रेरी थी। इसका भवन बहुत बड़ा और प्रवेश के बरामदे के छत की ऊँचाई पचीस तीस फीट थी। झाड़-फानूस लगे थे। कालीन बिछे थे। इमारत के बाहर के पार्किंग प्लेस का क्षेत्र पाँच छः एकड़ का था। पुस्तकालय का हिस्सा तीन मंजिला था। इसी में अत्यन्त सुसज्जित सेमीनार हाल भी था। बैठकर पढ़ने के लिए अलग-अलग मेज और सोफे पड़े थे। जो किताब चाहिए खुद कम्प्यूटर में चेक करके मँगाइये। सहायता के लिए स्टाफ मुस्तैद है। यदि कोई किताब उपलब्ध नहीं है तो यहाँ काउन्टर पर नोट करा दीजिए। 15 दिन में अन्य पुस्तकालय से मँगा कर या खरीद कर उपलब्ध करा देंगे। सभी पुस्तकालय इन्टरकनेक्टेड हैं। सीनियर सिटिजन को किताब की डिलिवरी घर पर भी देने का प्रबन्ध है। हम ऊपर नीचे घूम-घूम कर आलमारियों में लगी पुस्तकों का अवलोकन करते रहे।

    वापस हो रहे थे तो बगल से गुजरती ट्रेन देखकर उसमें मिलने वाली सुविधाओं की चर्चा चली। प्रतीक ने बताया कि यहाँ विकलाँगों के लिए इंजन के पीछे वाला डिब्बा आरक्षित रहता है। स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर ड्राइवर उतरकर आता है और विकलाँग व्यक्ति को उसकी गाड़ी सहित नीचे उतारता है, तब गाड़ी को आगे ले जाता है। सचमुच बड़ी बात है। मानवीय गरिमा की कद्र।

    घर पहुँचे तो टी.वी. पर समाचार आ रहा था कि जेबकतरों का एक गैंग पकड़ा गया है। इनमें चार श्रीलंकाई और दो भारतीय हैं। दिल्ली में नहीं, मेलबोर्न में। यहाँ भी रेकार्ड कायम करने आ गये हैं।

    सोचा इतनी दूर आये हैं तो यहाँ के लेखकों से भी मिला जाय। मैं पीटर केली का नाम ही जानता था जिन्हें दो बार बुकर सम्मान से सम्मानित किया गया है। वे सिडनी में रहते थे और मेलबोर्न के पास पैदा हुए थे। पर पता लगा कि अब काफी अरसे से वे न्यूयार्क में रहने लगे हैं। इसी पूछताछ में एक ऐसे नायक की जानकारी मिली जिसे यहाँ की गरीब आम जनता अपना संरक्षक और मुक्तिदाता मानती थी। उसमें राबिनहुड की छवि देखती थी। जबकि यहाँ की गोरी सरकार उसे लुटेरा और हत्यारा मानती थी। कुछ-कुछ भगत सिंह जैसी कहानी। भगत सिंह के बम से भी तो किसी की जान नहीं गयी थी पर उन्हें फॉसी दी गयी। इस नायक को भी फॉसी दी गयी। दरअसल किसी की छवि आप को कैसी दिखायी देगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उसे कहाँ से देख रहे हैं।

    इस नायक का नाम है नेड केली। पीटर केली ने इसीके जीवन पर आधारित उपन्यास लिखा है- TRUE HISTORY OF KELLY GANG. जिसे 2001 के बुकर सम्मान से पुरस्कृत किया गया है।

    कौन था नेड केली? वह बागी क्यों बना? नेड केली आयरिस मूल के कैथोलिक माता-पिता की सन्तान था और दिसम्बर 1854 में ऑस्ट्रेलिया में पैदा हुआ था। अपने अनुभव से उसने बहुत जल्दी जान लिया था कि आयरिश मूल के लोगों के साथ ऑस्‍ट्रेलियाई प्रशासन भेदभाव पूर्ण नीति अपनाता है और पुलिस उनका दमन करती और मुकदमों में फँसाती है। इग्लैंड में आयरिश कैथोलिक्स के प्रति दुर्व्यवहार से सारी दुनिया अवगत है। उन्हें छोटे-मोटे अपराधों के लिए भी भारी सजा दी जाती थी। केली के पिता को भी दो सुअर चुराने के अपराध में सात साल की सजा दी गयी थी और जब उनकी सजा पूरी होने में कुछ अवधि शेष थी तो उन्हें ऑस्‍ट्रेलिया निर्वासित कर दिया गया था। सन् 1840 में डिपोर्टेशन पर रोक लगने के पहले तक पचास हजार आयरिश कैथोलिक्स को ऑस्‍ट्रेलिया निर्वासित किया जा चुका था। नेड केली बचपन से ही बहुत साहसी था। एक बार जब वह केवल दस वर्ष का था तो एक सात साल के डूब रहे बच्चे को पानी में कूद कर बचाया था। जब नेड केली सिर्फ बारह वर्ष का था तो उसके पिता का देहाँत हो गया था। केली और उसके परिवार को आयरिश मूल का होने के कारण पुलिस दमन का शिकार होना पड़ा। चौदह वर्ष की कच्ची उम्र में ही उसे पहली बार दस दिन तक पुलिस कस्टडी में रहना पड़ा और जल्दी ही फिर सात हफ्ते के लिए जबकि दोनों बार अपराध सिद्ध नहीं हुआ। जल्दी ही उसे छः महीने की सजा हुई और सजा काट कर बाहर आते ही फिर तीन साल की सजा। यानी बालिग होते-होते वह चार बार दंडित किया जा चुका था। उसकी माँ को अपनी बेटी केटी के साथ छेड़छाड़ करने वाले व्यक्ति के साथ मारपीट करने के लिए तीन साल की सजा हुयी थी। छोटे भाई को एक बार पन्द्रह साल की उम्र में पाँच साल की सजा हुयी थी, दुबारा दस साल की। चोरी करने या झगड़ा करने के अपराध में।

    नेड केली प्रशासन द्वारा की जा रही ज्यादतियों और पुलिस की बर्बरता का विरोध करने लगा। प्रताड़ित लोगों की आवाज उठाने लगा। पुलिस उसके पीछे पड़ गयी। पुलिस दमन से बचने के लिए वह छिपकर रहने लगा और बैंक लूट जैसे अपराध किए।

    एक बार उसे पकड़ने के लिए भेजी गयी पुलिस पार्टी के साथ उसकी मुठभेड़ हो गयी जिसमें तीन पुलिस वाले मारे गये। जिनकी हत्या का आरोप केली पर लगाते हुए उसे मोस्ट वॉटेड की श्रेणी में डालकर जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए उसके सिर पर इनाम घोषित किया गया। पहली बार सौ पौंड का, दुबारा 500 पौंड का और तीसरी बार दो हजार पौंड का। अंतिम बार पकड़े जाने के पहले फरवरी 1879 में केली ने अपने साथी JOE BYRNE को बोलकर लगभग आठ हजार शब्दो का 54 पेज का एक पत्र लिखवाया जिसमें उसने अपना पक्ष प्रस्तुत किया है। इसे केली का घोषणा-पत्र (मेनिफेस्टो) कहा जाता है। इसमें केली ने कहा है कि वह न्याय, समानता के व्यवहार की आकॉक्षा तथा पुलिस दमन और बर्बरता के खिलाफ लड़ रहा है और ऑस्ट्रेलिया की गरीब, प्रताड़ित तथा भेदभाव झेल रही जनता को उसका अधिकार दिलाने के लिए लड़ता रहेगा। उसने कहा कि मैंने कभी किसी की हत्या नहीं की है। मुझे बागी बनने के लिए मजबूर किया गया है। केली ने एक पुलिस अफसर का उल्लेख करते हुए कहा कि आयरिश मूल के कैथोलिक सेटलर्स का शिकार करने वाले उस भ्रष्ट पुलिस अफसर को बर्खास्त किया जाय।

    यह पत्र पढ़ने लायक है। इससे केली की विचारधारा, उसका चिंतन, उसका पक्ष तथा उस समय की आर्थिक सामाजिक विसंगति व भेदमूलक समाज की निर्मिति की जानकारी होती है।

    चूँकि केली आम जन की समस्याओं को लेकर आवाज उठाता था इसलिए उसके समर्थन में वहाँ के मूल निवासी, चीनी मूल के लोग तथा गोरे लोगों का एक तबका खड़ा हो गया था। लेकिन पुलिस उसे लुटेरा हत्यारा और कानून के शासन के लिए चुनौती मानती रही। उसका पीछा करती रही और अंततः एक दिन वह जिस मकान में अपने साथियों के साथ मौजूद था उसे चारो तरफ से घेर लिया तथा आत्म समर्पण न करने की दशा में उसमें आग लगा दिया। केली घायल अवस्था में पकड़ा गया। यह 28 जून 1880 की बात है। उसके खिलाफ बहुत संक्षिप्त सा मुकदम चलाकर उसे फाँसी की सजा सुना दी गयी।

    मेलबोर्न की आम जनता ने कहा कि केली न्याय और समानता के लिए किए जा रहे हमारे संघर्ष का नायक है उसे फाँसी नहीं दी जानी चाहिए। इसके लिए एक हस्ताक्षर अभियान चलाया गया जिसमें तीस हजार से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर किया। जबकि उस समय मेलबोर्न शहर की कुल आबादी बच्चों व महिलाओं को जोड़ कर दो लाख अस्सी हजार थी।

    पर सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। 11 नवम्बर 1880 को मेलबोर्न की जेल में उसे फाँसी पर लटका दिया गया। उसके शव को अन्य मृत कैदियों के साथ जेल के अंदर ही गड्ढा खोदकर दफना दिया गया। ऐसा माना गया कि केली की लाश बाहर जायेगी तो ला आर्डर की समस्या पैदा हो जायेगी। भगत सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ था। उनकी लाश तो टुकडे़-टुकडे़ करके संडास के रास्ते बाहर ले जायी गयी थी।

    नश्‍लवाद ने कितना जहर घोला है दुनिया में।

    नेड केली को सिर्फ पचीस साल की उम्र मिली। नेड केली की छवि आज भी ऑस्ट्रेलिया के आमजन में शहीद और नायक की है। उनका नायकत्व बढ़ता ही जा रहा है। ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों ने पुलिस से मुठभेड़ में प्रयोग हेतु अपने इस नायक को 41 के.जी. का जिरह बख्तर बना कर भेंट किया था। जिसे विक्टोरिया की स्टेट लायब्रेरी में दर्शनार्थ रखा गया है। घर में पुलिस द्वारा आग लगा दिए जाने पर केली यही बख्तर पहन कर बाहर निकला था और उस पर दागी गयी गोलियों का कोई असर नहीं हो रहा था। उसकी गोलियाँ खत्म होने पर नजदीक से उसके पंजो पर जो जिरह बख्तर से बाहर था, गोली मार कर उसे घायल करके पकड़ा गया।

    ऑस्ट्रेलिया में एक कहावत प्रचलित है- इतना बहादुर जैसे केली। ऑस्ट्रेलिया के आर्टिस्ट Sidney Nolan ने केली की एक पेंटिंग बनायी जो 2010 में 54 मिलियन ऑस्ट्रेलियन डालर में नीलाम हुयी। यह अब तक किसी भी ऑस्ट्रेलियन पेंटिंग के लिए दी गयी सबसे ज्यादा धनराशि है। 2003 में केली के जीवन पर आधारित एक फिल्म भी बनी है। आर.एम.आई.टी. युनिवर्सिटी मेलबोर्न के प्रोफेसर पीटर नार्डेन लिखते हैं- If Kelly was tried today and had proper legal representation he would never be convicted of murder because he was acting in self defence. वे कहते हैं- वह अपने, अपने परिवार और अपने लोगों के हित में लड़ा। पुलिस उसे गिरफ्तार करने पर नहीं बल्कि उसकी हत्या करने पर आमादा थी।

    नेड केली ऑस्ट्रेलियन जनमानस में इतना छाया हुआ है कि अब ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने भी नेड केली को ‘महानायक’ मान लिया है। 2010 में सिडनी में हुए ग्राीष्म ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में नेड केली को राष्ट्रीय गौरव 'National Icon' के रूप में प्रस्तुत किया गया।


    अनिता बरार ने एस.बी.एस. हिन्दी सेवा के लिए मेरा साक्षात्कार लिया तो पता चला कि इसके पहले उन्होंने मेरे साहित्य का अधिकाँश पढ़ लिया है। साक्षात्कार के दिन ही उन्होंने अगले रविवार को अपने घर लंच पर निमंत्रित किया। वे मेलबोर्न के मध्य में पति के साथ रहती हैं। उनका फ्लैट बहुत ही विषाल और सुसज्जित था। उन्होंने अत्यन्त रुचि से भारतीय व्यंजन बनाए थे, जिसमें उनके पतिदेव ने भी सहयोग किया था। डायनिंग टेबल नाना प्रकार के पकवानों से सजी थी।

    मैं अभी तक डाइनिंग टेबल के मैनर नहीं सीख पाया। डरता रहता हूँ कि बोलने बरतने में कोई चूक न हो जाय। मैं इस बात पर विश्‍वास नहीं कर पाता कि मुझे प्लेट या छुरी कॉटा पकड़ने अथवा खाद्य सामग्री निकालने का सलीका आता है। अगर खीर या सिवईं दिख गयी तो सबसे पहले उसी को खाने पर जोर मारता हूँ। बुफे सिस्टम में तो चल जाता है लेकिन टेबल पर चार आदमी के साथ बैठे हैं तो इस इच्छा पर नियंत्रण रखना पड़ता है।

    मैं लेफ्टिस्ट हूँ। विचारधारा से भी और जैविक रूप से भी। वैडमिंटन बायें हाथ से अच्छा खेलता हूँ, वैसे दायें से भी खेल लेता हूँ। लम्बी कूद तब ज्यादा कूद पाता था जब बायें पैर से उछाल लेता था, वैसे दायें पैर के उछाल से भी कूद लेता था। फावड़े के बेंट पर सबका दाहिना हाथ आगे रहता है मेरा बायाँ। पहले बायें हाथ से लिखता था। बहुत अच्छी राइटिंग बनती थी। प्राइमरी के एक गुरुजी द्वारा लगातार दण्डित किए जाने के कारण दाहिने से लिखने लगा। अब लिख तो दोनों से लेता हूँ लेकिन राइटिंग बिगड़ गयी। पहले बायें हाथ से खाता था, बाद में टोके जाने पर दाहिने से भी खाने लगा। अब अगर अपने घर में खाता हूँ तो अवचेतन मस्तिष्क बायें हाथ को आगे कर देता है और बाहर खाता हूँ तो दाहिने हाथ को। अनीता जी के घर में उन लोगों से बातचीत में इतना घर जैसा सहज महसूस करने लगा कि सलाद की प्लेट की ओर बायाँ हाथ बढ़ गया। लेकिन तुरंत ही अपनी गलती सुधार भी ली।

    बातचीत के क्रम में अनिता जी ने बताया कि वे तीस-बत्तीस साल से ऑस्ट्रेलिया में हैं। पहले सिडनी में थीं, अब मेलबोर्न में हैं। उनकी एक बेटी है जो विवाहित है और सिंगापुर में रहती है। अनीता जी खुद भी कहानियाँ लिखती हैं- हिन्दी और अँग्रेजी दोनों भाषाओं में। उनकी एक हिन्दी कहानी ‘तीन पत्र’ पढ़ने का मौका मिला। अत्यंत सहज और सरल शिल्प में। जीने की प्रेरणा और साहस देने वाली आशावादी कहानी, जिसे विश्‍व हिन्दी सचिवालय द्वारा पुरस्कृत किया गया है।

    अनिता जी का परिवार विभाजन के बाद आकर शाहजहाँपुर में बस गया था। वे अपने बचपन के दिनों को जली कोठी नाम के उस विषाल घर से जुड़ी स्मृतियों के साथ याद करती हैं। इसी कोठी की पृष्ठभूमि में शशिकपूर ने अपनी फिल्म ‘जुनून’ की शूटिंग की थी। 1857 में नवाब की इस कोठी में अंग्रेजों के छिपे होने के कारण बागियों ने जला दिया था। उनकी इच्छा है कि वे एक बार शाहजहाँपुर जाकर अपने उस घर के कोने अँतरे के साथ-साथ उस कोठी को भी भर आँख निहारें।

अपनी पहली मुलाकात में अनिता जी ने कमलेश्‍वर की ‘कितने पाकिस्तान’ पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। मैंने इंडिया इनसाइड पत्रिका के सम्पादक अरुण सिंह को फोन करके इसे मँगवाकर अनिता जी को दिया। वे खुश हो गयीं। चलते समय एक लिफाफे में उसकी कीमत रख कर देने लगीं। मैंने कहा अगली बार जब आपके घर लंच पर आऊँगा तब लूँगा। दोनों प्राणी नीचे सड़क तक छोड़ने आये। दोनो लोग अत्यन्त विनम्र, शांत और मीठे व्यवहार के धनी हैं। मेलबोर्न अनिता दम्पति के लिए भी याद आयेगा।

    प्रतीक के घर के ठीक बायीं तरफ का घर संजीत जी का है। उन्‍होंने भी एक दिन हम सबको भोजन पर बुलाया। भोजन में उत्तर दक्षिण और पश्चिम भारत के तीनो भागो का प्रतिनिधित्व था। कई वर्षों तक खाड़ी देशों में रहने के बाद यहाँ रहने आये संजीत जी तमिलनाडु के मूल निवासी हैं और महाराष्ट्र में पले बढे़ हैं। हिन्दी अच्छी बोल लेते हैं। इनकी पत्नी रत्ना जी आन्ध्र से हैं और मुहावरेदार हिन्दी बोलती हैं। संजीत जी की मां तमिल और मराठी बोलती हैं लेकिन हिन्दी भी समझ लेती हैं। सबने मिल कर संवाद की ऐसी भाषा ईजाद की जिसमें सबकी मातृभाषा के शब्दों का प्रतिनिधित्व था। जल्दी ही वस्तु विनियम की पुरानी परम्परा शुरू हो गयी। मेरी पत्नी ने रत्ना जी को बथुए का पौधा उपहार में दिया और रत्‍ना जी ने रिटर्न गिफ्ट के रूप में उन्हें गुलदाउदी का।
    
    शहर के बाहर आते जाते रास्ते में एक डेयरी फार्म पड़ता था। सड़क पर खुलने वाले गेट के बगल एक ऊँचे स्तम्भ पर चितकबरी गाय की एक मूर्ति स्थापित थी। उसका विशालकाय थन देखकर पत्नी कहती थीं कि यह बीस लीटर दूध देती होगी। यह जानकर कि इस फार्म में मशीन से गायें दुही जाती हैं, वे आश्‍चर्य में डूब गयीं। इतना ही आश्‍चर्य उन्हें तीस पैंतीस साल पहले यह जान कर हुआ था कि गायों को अब सुई लगाकर गाभिन किया जाने लगा है। साँड़ के पास ले जाने की जरूरत ही नहीं है। साँड़ कभी-कभी बहुत अदरावन कराते थे। अपना काम भूल कर चरने लगते थे। आदमी ने अच्छा तरीका निकाला।

    वे मशीन से दुहने का तरीका देखना चाहती थीं। हम एक दिन उस डेरी पर गये। मिल्‍किंग देखने के लिए पहली मंजिल पर दर्षक दीर्घा बनी हुयी थी। भूतल पर एक विशाल गोलाकार प्लेटफार्म था जो धीरे-धीरे बिजली से घूमता रहता था। इसमें गाय को घुसकर खडे़ होने के लिए केबिन बना था। गाये दूर तक एक पंक्ति में खड़ी थीं। केबिन में घुसने को आतुर। केबिन सामने आने पर आगे वाली गाय उसमें घुस जाती थी, केबिन का द्वार बंद हो जाता था, एक लड़की गाय के थन में मशीन लगाकर स्विच आन कर देती थी। उसी समय ऊपर से गाय के सामने की नाद में चारा गिरता था और गाय उसे खाने में लग जाती थी। यह उस चारे का लालच ही था जो गायों को पंक्तिवद्ध होने के लिए प्रेरित करता था। कभी-कभी तो पीछे खड़ी गाय अपने आगे वाली से पहले केबिन में घुसने के लिए झगड़ जाती थी। जब तक दुही जाने वाली गायो का दूध समाप्त होता उसका केबिन घूमते-घूमते बाहर निकलने के द्वार पर पहुँच जाता। तब तक मशीन भी दूध निचोड़ कर थन छोड़ कर नीचे लटक जाती। केबिन का द्वार खुलता और गाय पीछे पिछड़ते हुए केबिन से बाहर आ जाती। वहाँ म्ग्प्ज् की बत्ती जलती रहती थी। यह पता नहीं चल पाया कि गाय म्ग्प्ज् का बोर्ड पढ़ कर बाहर जाती थी या अपनी प्रज्ञा का अनुसरण करते हुए।

    मैदान में हजार के करीब गायें दूध देने का इंतजार कर रही थीं। गर्मी बढ़ गयी थी। उन पर पानी की फुहार बरसायी जा रही थी। सिर्फ दो आदमी मिल्किंग के कार्य को अंजाम दे रहे थे। मुझे लगा कि दो महीने के इस ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के प्रवास में पत्नी को यहीं आकर अपनी यात्रा की सार्थकता महसूस हुयी।

    मेरा विश्‍वास है कि अगर उन्हें ऑस्ट्रेलिया से कोई चीज भारत ले जाने की छूट मिलती तो वे यहाँ की गाय ही ले जातीं।


    वापसी की तिथि आ ही रही थी कि पता चला, चीन से कोरोना नाम की एक बीमारी निकली है और पूरी दुनिया में फैल रही है। जो चीनी विद्यार्थी नये वर्ष की छुट्टियों में चीन गये थे उनकी वापसी पर प्रतिबन्ध लग गया है। हमने भी अपने गाँव-देष लौट आने में भलाई समझी।

    विदा कंगारू! विदा ऑस्ट्रेलिया।

    गाँव पहुँचा तो देखा, गाय ने बछड़ा जना है। वह अपने भविष्य से अनजान दूर-दूर तक कुलाचें भर रहा था। मेरी आँखें नम हो गयीं।

-ः0ः- -ः0ः-

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लू शुन के देश में

यात्रावृतांत                                                           

 शिवमूर्ति

चीन यात्रा का यह संस्मरण वर्तमान साहित्य के  फरवरी २०१५ अंक में प्रकाशित हुआ है ब्लॉग के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत 


    जब बचपन में पढ़ता था-
    
    इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन जापान देश।
    
    मध्यस्थ खड़ा है दोनों के एशिया खंड का यह नगेश।।
    
    तो सोचता था कि बडे़ होकर किसी दिन इस नगेश हिमालय पर चढ़ कर उस पार बसे चीनियों का जनजीवन देखूँगा। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, चीनियों के बारे में जानने की उत्कंठा बढ़ती गयी। बडे़ बूढे़ कहते थे कि हमारे देश से ही बौद्ध धर्म चीन, जापान, थाईलैण्ड आदि देशों में गया है। दर्जा 6 में था तभी सन् 62 में भारत चीन युद्ध हुआ। तब से कभी-कभी लगाया जाने वाला नारा- ’हिन्दी चीनी भाई भाई’ बंद हो गया। और बड़ा हुआ तो, चीनी यात्रियों फाहियान और हवेनसाॅग के बारे में पढ़ा। बाद में चेयरमैन माओ और चीन की महान दीवार आकर्षण का केन्द्र बने।

    लू शुन को पढ़ा तो चीन के प्रति नजदीकी महसूस होने लगी। थियानमान चैक पर बीते दिनो हुआ छात्रों का नरसंहार चीन की छवि उसके प्रतीक फॅुफकारते ड्रैगन जैसा भयकारी बनाने लगा। सोचा, इस बार यथासंभव चीन को भीतर से देखने समझने की कोशिश की जाय।

    विगत वर्षाें में जो लोग अमेरिका यूरोप या साउथ अफ्रीका आदि की यात्रा में साथी बने थे उनका मन टटोला। लेकिन चीन की यात्रा के लिए किसी ने भी उत्सुकता नहीं दिखायी। लोगों का कहना था कि चलना ही होगा तो सिंगापुर, थाईलैंड, मकाऊ या हाॅगकाॅग चलेंगे। चीन में क्या है? अंत में हम पति पत्नी ने अकेले जाने का मन बनाया। दिल्ली से हम चाइना ईस्टर्न एअरलाइन्स की उड़ान संख्या 564 से 9 व 10 मई की रात्रि में चीन के अंतिम बादशाह पू ई 2ः30 बजे संघाई के लिए उड़े। चीनी आदमी की कल्पना करने पर मेरे दिमाग में अबतक पाँच सवा पाँच फीट की स्थूल आकृति ही उभरती थी लेकिन फ्लाइट में जो युवा चीनी अभिवादन और सार सॅभाल करते मिले उनमें से कोई भी पौने छः-छः फीट से कम नहीं था। लम्बे छरहरे सुदर्शन। स्थूलता का नामोनिशान नहीं। और एअर होस्टेस कोई भी साढे़ 5 फीट से कम नहीं। तन्वंगी और गोरी नहीं, गुलाबी। नासिका भी चपटी नहीं ऊॅची। कहाॅ से ले आये चीनी लोग इन्हें छाॅटकर। अपने जीन्स में भी क्रान्ति कर डाला क्या? बाद में चीन घूमते हुए लगा कि सचमुच चीनियों की औसत ऊँचाई बहुत बढ़ गयी है। मैं तो चीन के पारम्परिक गाँवों में भी गया। इक्का दुक्का बूढे़ पुरानो को छोड़कर कहीं भी नाटे आदमी नहीं दिखे।
चीन के अंतिम बादशाह पू ई 

    विमान के उड़ते ही लोगों को जल्दी जल्दी लाइट बुझाकर सो जाने की हड़बड़ी थी। लेकिन मेरी नींद तो उड़ चुकी थी। अगर मैं दस साढे़ दस बजे, हद से हद ग्यारह बजे तक सो न जाऊँ तो मेरी नींद गयी। अब जागरण ही करना होना। अच्छा है, मैंने सोचा। दिल्ली से चलते समय चित्रकार मित्र लाल रत्नाकर ने चीन से गिफ्ट के रूप में अपने लिए तीन चीजें लाने के लिए कहा है, जिन्हें मैंने कागज के एक टुकड़े पर नोट कर लिया था। अब सिर के ऊपर लगी रीडिंग लाईट जलाकर मंैने उसे डायरी में नोट किया। पहली चीज, चाइनीज ब्लैक इंक। बताया कि इसका कोई जवाब नहीं। पेंटिग में प्रयोग की जाती है। दूसरी, सैबल हेयर (गिलहरी की पूँछ के बाल) से बना पेंटिंग ब्रश जो खास चीन में ही मिलता है और तीसरी, कोई चाइनीज पेंटिंग जो यादगार बना जाय। लिखकर मैंने  भी लाइट बंद कर दी। खिड़कियाॅ पहले ही बंद थीं। नीम अंधेरे में सारे यात्री बेखबर बेखौफ सो रहे थे। विमान मानों आकाश में स्थिर हो गया था। मेरी सीट खिड़की के पार दाहिनी तरफ थी। कुछ देर ऑखे बंद करने के बाद मैंने धीरे से खिड़की का ढक्कन थोड़ा सा उठाया। पूरब में लोहा लगने लगा था। बचपन में पिताजी भोर में उठाते थे- उठो, लोहा लग गया। मतलब पूर्वी क्षितिज पर ऊषा की लाली फैलनी शुरू हो गयी। किसानों के हल बैल लेकर खेत मे जाने का समय हो गया। गृहणियों के जाँत पीसने का समय हो गया। विद्यार्थियों की पढ़ाई का समय हो गया। ऋषियों मुनियों के स्नान ध्यान का समय हो गया। तब उठाये से नहीं उठता था। बहुत दिनों बाद आज लोहा लगना देख रहा था। धीरे-धीरे सारा पूर्वी आकाश लाल हो गया। हम लोग हिमालय पार कर रहे होंगे।

    थोड़ी देर में जाग हो गयी। चाय, जूस़... नास्ता सर्व होने लगा। 11 बजे हम शंघाई उतरेंगे। वहाँ से प्लेन चेंज करके 12ः30 बजे चलेंगे तो 3ः30 बजे वीजिंग पहुंचेंगे। संघाई के बारे में कहते है कि न्यूर्याक से भी बड़ा और शानदार है। इस टूर में चीन के उत्तरी मध्य और पूर्वी तीनों क्षेत्रों को देखने की योजना है। शहर के साथ गाँव भी घूमने का मन बनाया है। इसके लिए आखिर के दो दिन खासतौर पर रखा है, जब बाकी साथी मकाऊ या हाॅगकाॅग के लिये उड़ जायेंगे, हम पति पत्नी चीन के सुदूर स्थित गाॅवों के भ्रमण पर जायेंगे। मेरा विश्वास है कि वहाॅ के किसानों का जीवन अभी भी उसी तरह का होगा जैसा हमारे यहाॅ भारत में है। और भारत में भी क्या उत्तर दक्षिण पूरब, हर जगह एक सा है? इतनी विविधता तो वहाॅ भी होगी ।

    वीजिंग हवाई अड्डे पर उतर कर हम होटल के लिए चले। लगभग पचास मिनट की यात्रा। इस यात्रा के दौरान मैं सड़क के दोनो तरफ नजर दौड़ाता रहा कि हमारे मुल्क का कोई पेड़ पालव दिखायी पड़ जाये लेकिन अपने परिचय का कोई न मिला। न नीम, न जामुन, न महुआ, न इमली। पीपल, पाकड़, बरगद भी नहीं। हाॅ आम के तीन चार छोटे कद के पेड़ जरूर दिखे जो सड़क से दूरी बनाए एक जगह खडे़ थे। इस बीच एक नदी भी मिली। पर बालू के किनारों वाली नहीं। कीचड़ मिट्टी में लिथड़ी। पानी घटा हुआ था। यानी बगुलों के लिए मछली के शिकार का उत्तम योग। लेकिन यहाँ तो एक भी बगुला न था। आसमान में भी नहीं। ध्यान दिया तो पाया कि किसी भी प्रजाति की चिड़िया नहीं दिख रही है। बाद में हमारी लोकल चाइनीज गाइड सिन्डी ने बताया- यह कहते हुए मुझे बड़ी शर्म महसूस हो रही है कि हमारे देश की सारी चिड़िया हमारे पूर्वजों के पेट में चली गयीं। अब हम उन्हें देखने, उनकी बोली सुनने के लिए तरसते हैं। अपने बच्चों को किताबों में उनके चित्र दिखाते हैं। अगर आपको हमारे देश में कहीं कोई चिड़िया दिख जाय तो समझिए अपनी जान जोखिम में डाल कर वह चीन में रह रही है।
सिन्डी ने सही कहा था। आगे की अपनी यात्रा में मुझे जियांग के एक बडे़ और फूलों से लदे पार्क में केवल एक गौरैया फुदकती दिखी और पूरब का वेनिस कहलाने वाले ‘वाटर विलेज’ जाने के रास्ते में एक कत्थई कौआ। दोनो ही अकेले। सिन्डी ने एक दिन बताया कि उनके यहाॅ तलाक का प्रतिशत 35 से 40 तक है। मैने सोचा कि यह गौरैया या कौआ भी कहीं तलाक शुदा तो नहीं है। नहीं, ए विधुर या विधवा होंगे। इनका जोड़ीदार किसी चीनी द्वारा उदरस्थ कर लिया गया होगा। तितलियाँ भी नहीं दिखी। इतने फूल खिलने का क्या मतलब कि जिनके लिए ए खिले हैं वे ही नहीं हैं इनका रसपान करने के लिए।

    हमारे होटल का नाम है- डे इन ज्वाइस्ट। लेकिन कमरे में न हेयर ड्रायर है न प्रेस। न चाय के लिए दूध या चीनी। पत्नी किसी भी होटल में पहुंचने पर पहले हेयर ड्रायर खोजती हैं फिर बाथरूप देखती हैं। उन्होंने सारी सम्भावित जगहें खोज डालीं। हेयर ड्रायर न मिला। उनका मुँह लटक गया। मिनरल वाटर की बोतल तक नहीं है। सिर्फ पानी गर्म करने वाली केतली भर है। बेड टी देने का यहाँ रिवाज ही नहीं है। तब इसका नाम ज्वाइस्ट कैसे हुआ?
कमरा और बाथरूम तो बड़ा था लेकिन नहाने के लिए बनाया गया शीशे का केबिन इतना छोटा कि उसमें खडे़ होने के बाद झुकना मुश्किल । कैसे होटल में इन्तजाम किया है इन लोगों ने । मेरी आदत पीढे़ पर इत्मीनान से बैठ कर नहाने की है। खडे़-खडे़ नहाना भी कोई नहाना हुआ। यह तो उसी तरह मजबूरी में निबटाना हुआ जैसे भूतकाल में कभी समयाभाव या स्थानाभाव के चलते एकाध आनंददायक काम खडे़ खडे़ निपटा लिए जाते थे। नहाने में वैसा दुर्निवार आकर्षण मेरा कभी नहीं रहा कि किसी भी तरह निपटाने की चाहत जगे। थोड़ी ठंड भी थी इसलिए शाम का स्नान मैने मुल्तवी कर दिया।

    सबेरे नास्ते में न दूध था न कार्नफ्लैक्स। न मेवे न शहद न फल। सेब के कुछ टुकड़े रखे गये थे। मक्खन की क्वालिटी भी बहुत मामूली। छाछ से निकाले गये कच्चे मक्खन की तरह। बिना गर्मी के ही गला जा रहा था। अंडा केवल उबले रूप में था। उसके भुजिया आमलेट जैसे रूप नदारत थे। योरोप और अमेरिका में मिलने वाले नास्ते की तुलना में यह नास्ता एकदम सूखी बासी रोटी जैसा था। अपनी आदत के मुताबिक मैने थोड़ा शोर शराबा शुरू किया। एक दो समर्थक तैयार किए। मैनेजर आया। ‘सारी’ बोला। केला, सेब, कार्नफ्लेक्स और दूध का इंतजाम हुआ।

    रिसेप्शन के हाल में हमारी लोकल गाइड सिन्डी हाथ में एक झंडी लिए अवतरित हुईं। उसने दोनों हाथ जोड़कर बौद्ध ढंग से सिर झुकाते हुए स्वागत किया- नी हाउ! यानी चीन में आपका स्वागत और अभिवादन है। नी हाउ कहकर किसी का स्वागत अभिवादन करते हैं चीन में। यदि सामने वाला आप से कुछ रूष्ट भी है तो नी हाउ कहते ही वह सामान्य हो जायेगा, ऐसा बताया। स्वागत के साथ ही उसने अपना परिचय दिया। तेज तेज नहीं बल्कि जल्दी जल्दी बोलने वाली बाला सिन्डी चालीस के आस पास की होंगी। गोरा रंग, चैड़ा चेहरा। बाबकट। पौने पाॅंच फीट की लम्बाई ‘प’ को ‘च’ बोलने वाली। जैसे पेन को चेन। डालर को शालर या चालर। उसने बताया कि उच्चारण की अपनी सीमा के कारण जिस भाषा में बात करेगी उसे इंगलिश नहीं चिंगलिश कह सकते हैं। बताया कि यद्यपि उसने अमेरिका से इंगलिश स्पीकिंग का कोर्स किया है पर लाख कोशिश के बावजूद ‘च’ से पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पायी, सो बियर विद मी।

    सिन्डी ने बताया की उसका चीनी नाम तो कुछ और है लेकिन उसकी अमेरिकन टीचर ने उसका नाम रख दिया सिन्डी और उसने गुरूदक्षिणा के रूप में ‘सिन्डी’ स्वीकार कर लिया। सिन्डी का मतलब होता है लिली। इसलिए आप इंडियन लोग मुझे लिली भी कह सकते हैं। जब उसे बताया गया कि गुरू दक्षिणा में शिष्य गुरू को भेंट या मोमेंटो देता है न कि गुरू से लेता है। यह तो चीनी ही होंगे जो उल्टे गुरू से दक्षिणा लेते होंगे, जैसे तुमने लिया। उसे पूरी बात समझने में  थोड़ी देर लगी लेकिन जब समझी तो जोर से हॅसी और बोली- हम चीनी लोग देने में कम लेने में ज्यादा यकीन करते हैं।

    सिन्डी ने सावधान किया- चीन में आपकी यात्रा निरापद बीते और कोई दुर्घटना न घटे इसके लिए जरूरी है कि हमेशा कुछ सावधानियाँ बरतें। यद्यपि हमारे यहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी का शासन है और रेड लाइट एरिया बंद कर दिया गया है। कसीनोे भी नहीं है लेकिन मैं यह कहते हुए शर्मिन्दा हूँ कि हमारे देश में जेबकतरे, ठग और नकली नोट के करोबारी बहुत सक्रिय हैं। अपना पासपोर्ट होटल के रिसेप्शन पर या अपने कमरे के लाकर में रख कर ही चलें अन्यथा पर्स छिन जाने या जेब कट जाने पर पासपोर्ट के अभाव में परेशानी हो जायेगी। पर्स में ज्यादा धन न रखें और चेंज लेकर चले। किसी वस्तु के खरीदने पर उतना ही धन पर्स से बाहर निकाले जितनी कीमत देने के लिए जरूरी है। बडे़ नोट का प्रदर्शन हरगिज मत करें। अनजान व्यक्ति से मनी एक्सचेंज न करें वरना वे फेक करेंसी पकड़ा देंगे या किसी ऐसे मुल्क की करेंसी दे देंगे जिसकी मौद्रिक कीमत घटी हुई होगी जैसे आजकल ‘रियाल‘ है। वापसी के नोट ठीक से जाॅच लें। महिलाये अपनी चेन ढक कर चलें। गले में डाले ही नहीं तो सबसे अच्छा है। अपने पर्स और मोबाइल पर सदैव नजर रखें। वर्ना ए चीजें पलक झपकते गायब हो सकतीं हैं। और अंत में, होटल का एक कार्ड तथा पानी की छोटी बोतल सदैव साथ रखें।
    
    बाप रे! इतने खतरे। इतनी सावधानी।
    (यह और बात है कि इतना सावधान किये जाने के बावजूद आगे हम लुटे भी और नकली करेंसी के शिकार भी हुए) पूरी तरह सावधान होकर, गर्म कपड़े पहन कर, जूता मोजा डाट कर हम थियानमान चैक लिए बस में बैठे। सिन्डी ने हाथ में ली हुई झंडी को हिलाते हुए कमांड दिया- आलवेज फालो मी। फालो माई फ्लैग। अपने झुंड से बिछड़ जायें तो पुलिस के पास जायें और होटल का कार्ड दिखायें।

    घटाएँ तो सबेरे से घिरी थीं, बस के चलते ही बरसात शुरू हो गयी। बाप रे! छाता लेने की तो याद ही न रही। बहुत कम लोग ही छाता लेकर चले थे। बस के रूकते ही बरसाती और छाता बेचने वाली महिलाओं ने बस को घेर लिया। वही छाता पहले दो से तीन डालर में दिया फिर एक डालर यानी 60-62 रुपये में और अंत में 5 युवान यानी 50 रुपये तक में। बस से उतरने से लेकर छाता खरीदने तक आधा भीग गये।

    पता नहीं क्या कारण था कि थियानमान चैक पर आज अपार जन-समूह उमड़ पड़ा था। देहात से आये बच्चे महिलायें। कन्धे से कन्धा छिल रहा था। गनीमत थी कि सब लाइन में थे। लम्बी लम्बी लाइनें। आधे लोग बिना छाते के और छकाछक बरसता पानी। कहते हैं इस चैक पर पाँच लाख लोग समा सकते हैं। सचमुच बहुत बड़ा। बड़ी देर बाद हम लोग स्मारक के सामने से गुजर पाये। कई वर्ष पहले यहाँ हुए भीषण नरसंहार का दृश्य आँखों में समोते रहे फिर उस स्मारक से होकर गुजरे जहाँ चेयरमैन माओ का शव सुरक्षित रखा गया है।
    
    पुलिस यहाॅ चाक चैबन्द दिखी। हमारे समूह के एक वृद्ध दम्पति भीड़ में छिटक कर अलग हो गये। तेज हवा ने उनके छाते की कमाचियां उलट दीं। वह उन्हें भीगने से बचाने लायक न रहा। वे एक किनारे खडे़ काॅपने लगे। किसी से कोई बात करना या मदद लेना संभव न था। भाषा का संकट था। तब पुलिस आयी। उनके होटल का कार्ड देखकर, टैक्सी का इन्तजाम किया । पचास युवान यानी 500/- में टैक्सी वोले ने उन्हें एक किमी दूर होटल तक पहुंचाया।
    
    चीन में सारी चीजें भारत से मंहगी हैं। फिर चीन में बनी चीजें विदेशों में इतनी सस्ती कैसे बिकती हैं? दो वर्ष पहले में टोरंटो के एक माल में घूम रहा था। सारी चीजों पर मेड इन चाइना दर्ज था। रिबन, पर्स या गुड़िया से लेकर सूटकेस तक पर। पूछने पर दुकानदार ने कहा- हम कुछ नहीं बनाते। सिर्फ बेचते हैं। पूरा बाजार, पूरा कनाडा चाइनीज माल से पटा पड़ा है।

    चाइना का माल ही नहीं चाइना का आदमी भी। अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान मैं प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार जैक लण्डन का स्मारक देखने सान फ्रान्सिस्को गया। वहाॅ का एक बड़ा हिस्सा चाइना बाजार ही है जिसकी दुकानों पर लगे साइन बोर्ड में सबसे ऊपर चीनी (मंदारिन) भाषा के बडे़ बडे़ अक्षर विराजमान थे और उनके नीचे छोटे कद के अँग्रेजी अक्षर। पता चला कि सान फ्रान्सिस्को शहर की मेयर एक चाइनीज लेडी थीं। कोइ बता रहा था कि चीन की सरकार अपने निर्यातकों को भारी मात्रा में सब्सिडी देती है जिससे चीनी माल पूरी दुनिया में सस्ता बिकने के बावजूद चीनी निर्माताओं को घाटा नहीं होता। मेरी समझ में यह समीकरण अभी तक नहीं आया।

    थियानमान चैक पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह थे फूलों से बने करीब पचीस तीस फीट लम्बे तथा 5-6 फीट चैड़ाई वाले वर्गाकर स्तम्भ और मैदान के किनारे किनारे रंग बिरंगे फूलों के बार्डर। ताजे खिले फूलों की अल्पना। सचमुच सुरूचिपूर्ण सजावट। भीगती और ठंड से काॅपती देंह के अंदर मन पुलकित होता रहा।

    यहाॅ से लंच के लिए गये उत्सव रेस्टोरेंट। रास्ते में हम ऐसी सड़क से गुजरे जिसके एक तरफ अपेक्षाकृत बडे़, साफ सुथरे, रंग रोगन युक्त दुमंजिले मकान या फ्लैट थे और दूसरी ओर पुराने पारम्परिक एक मंजिले बुझे रंग रोगन वाले। सिन्डी ने ध्यानकर्षित करते हुए बताया कि चाइना को यहाँ से देखिए। चीन में अब आपके इंडिया की तरह संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं रह गयी है। सड़क के इस तरफ इन बडे़ घरों में युवा पीढ़ी रहती है और दूसरी तरफ के पुराने घरों में बूढ़ी पीढ़ी। बूढ़ों को बातचीत के लिए साथी चाहिए और युुवाओं केे इन बूढ़ों की पुरानी यादों को सुनने के लिए न धैर्य है न इसकी जरूरत। इसलिए दोनों को ही एक दूसरे के साथ रहना पसन्द नहीं है। कभी कभार छुट्टी में बच्चे बूढे़ माॅ बाप के पास या माॅ बाप बच्चों के पास मिलने चले गये, इतना ही काफी है। सड़क के दोनों ओर जीवन जीने की रफ्तार अलग है। युवा चीनी अपने पड़ोसियों तक को नहीं जानता। वह बैंक बैलेंस बढ़ाने में जुटा रहता है। मैं खुद अपने सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी को नहीं जानती। मैं और मेरा पति सबेर 7ः30-8ः00 बजे घर छोड़ देते हैं और आठ साढे़ आठ तक थके थकाए घर लौटते हैं। पड़ोसी को कब और क्यों जाने? पड़ोसी को तो छोड़िए, इसी एकल परिवार की अवधारणा तथा दोनों लोगों के कामकाजी होने के चलते हम अपने बच्चे को ही नहीं जान पाये। चैदह साल की उम्र में ही वह विगड़ गया। ड्रग एडिक्ट हो गया। हम उसे अच्छी शिक्षा देकर सुधारना चाहते हैं लेकिन वह हम लोगों से कोई लगाव ही नहीं रखता। उसे हास्टल में रखने को मजबूर हैं लेकिन हम पति पत्नी बारी बारी उसके हास्टल का खर्च उठाते हैं। ऐसी व्यवस्था कर दिए है कि मेरे व मेरे हस्वैंड के एकाउन्ट से उसके हास्टल की फीस आटोमेटिकली डिपाजिट होती रहती है।

    -बारी-बारी, अलग-अलग एकाउन्ट से फीस जमा करने की बात समझ में नहीं आयी।
    
    सिन्डी ने समझाया- ऐसा है, हमारे यहाॅ पति पत्नी अपना अलग एकाउन्ट रखते हैं। अपनी कमाई अपने एकाउन्ट में। हमारे यहाॅ तलाक की दर बहुत अधिक है। कब किसका तलाक हो जाय, कहना मुश्किल। इसिलए हर व्यक्ति अपनी कमाई अपने पास रखता है। परिवार में होने वाला खर्च आधा आधा बांट लिया जाता है।

    सब लोग थोड़ी देर तक चुप रह गये। फिर सिन्डी ने ही बात आगे बढ़ाई- मेरे बच्चे के बिगड़ने का एक कारण सिंगल चाइल्ड फेमिली का होना भी है। परिवार में दो या तीन बच्चे होते तो उनका सोसलाइजेशन ज्यादा अच्छे ढंग से होता लेकिन तब हम दूसरा बच्चा पैदा नहीं कर सकते थे।

    -क्यों?

    -क्योंकि चीन में कुछ समय पहले तक एक ही बच्चा पैदा करने का कानून था। वर्ष 2008 के पहले अगर आप दूसरा बच्चा पैदा करना चाहते तो आपको सरकारी खजाने में में 8 से 20 हजार युवान जमा करने पड़ते। आम आदमी के लिए यह सौदा मंहगा पड़ता था। ऐसा सौदा चंद अमीर लोग ही कर सकते थे। कुछ पैसे वालेे लोग तो सिर्फ अगला बच्चा पैदा करने के लिए कुछ समय के लिए विदेश चले जाते थे। अब यह कानून बन गया है कि यदि आपका पहला बच्चा गर्ल चाइल्ड है और सात साल का हो गया है तो आप दूसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं।

    -गर्ल चाइल्ड वाले ही क्‍यों?

    - चीन पारम्परिक रूप से किसानों का देश रहा है जहाँ पिता की जगह खेती का काम करने के लिए लड़के की जरूरत महसूस की जाती रही है। इसी के चलते लड़का प्राप्त करने की प्रबल इच्छा चीन में आज भी बरकरार है। इसी के चलते चीन में लड़का और लड़की का अनुपात 3ः2 हो गया है। इस अनुपात ने अपना जीवन साथी चुनने के काम में लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में बेहतर कर दी है। यहाॅं की लड़कियाँ अपने लिए वर का चुनाव करने में दिल से नहीं दिमाग से काम लेती हैं। वे अपने भावी पति में दस गुणों का होना आवश्यक मानती हैं। यथा- वह कम से कम 1.75 मीटर लम्बा हो। वह ठीक ठाक पढ़ा लिखा हो। वह मैनेजीरियल नौकरी में हो। वह बीड़ी, सिगरेट, शराब न पीता हो। वह पत्नी की माॅ का भी भरण पोषण व सम्मान करने को राजी हो। उसकी कोई स्वीट हार्ट यानी प्रेमिका न हो। वह वेतन का पैसा परिवार पर खर्च करने का वचन दे। वह बच्चों को उच्च शिक्षा देने के लिए कृत संकल्प हो।

    लेकिन यह तो कुल आठ ही शर्तें हुईं। बाकी दो क्या थीं, बहुत याद करने पर भी मुझे याद नहीं आ रही है।

    सिन्डी ने बताया कि सुन्दर लड़की चीनी युवक की सबसे बड़ी चाहत होती है। लड़की के पीछे वे लाइन लगाये रहते हैं। उसको पाने के लिए कोई भी शर्त मानने को तैयार रहते हैं। भले बाद में वे इन शर्ताें को भूलने लगें।

    उसने बताया कि चीनी आदमी पूरी तरह वर्तमान में जीता है। जब चीनी आदमी के पास पैसा आता है तो वह पहले गाड़ी बदलता है, फिर बीबी बदलता है, फिर मकान बदलता है।

    -और, चीनी औरत के पास पैसा आता है तो?

    -तो उसका जोर मर्द बदलने पर चाहे उतना ज्यादा न रहे पर वह एक हार्ड बाॅस जरूर बन जाती है। तब सारा घर का काम हस्वैंड के जिम्मे आ जाता है। खासकर कुकिंग, क्लीनिंग एन्ड डिश वाशिंग।

    -और वाइफ के जिम्मे?

    -सिर्फ मेकअप, आफिस, शापिंग एंड स्लीपिंग।

    बस में बैठी हिन्दुस्तानी ‘वाइफें’ खुलकर मुस्करायी। एकाध ने अपने हस्बैंड के चेहरे की ओर भी देखा।

    उत्सव रेस्टोरेंट का खाना अच्छा था। चावल की क्वालिटी उतनी अच्छी भले नहीं थी लेकिन खूब सफेद, रीझा हुआ और मीठा था। तन्दूरी रोटी, मूँग की दाल, आलू मटर की सब्जी, पापड़, दही, अचार और सलाद। चिकन करी और फ्राइड फिश का तो जवाब नहीं। अंत में सफेद रसगुल्ला और आइसक्रीम। बस पीने के लिए पानी नहीं था। पानी की जगह हर टेबल पर दो लीटर की पैक्ड कोका कोला तथा स्प्राइट की चार पाॅच बोतलें और डिस्पोजेबल गिलास। पानी की जगह इसी को पीजिए और जितना चाहे पीजिए। बस पानी मत माॅगिए। मिनरल वाटर लेंगे तो उसका पैसा अलग लगेगा। खाना जितना मर्जी खाइये।

    उत्सव रेस्टेरोरेंट का मारवाड़ी मालिक 35-36 वर्षीय दीपक है। दीपक हर टेबल पर पहुंचकर पूछ रहा था- कुछ और चाहिए? खाना कैसा बना है? कोई कमी? और क्या इम्प्रूव कर सकते हैं? उसका उत्साह और मिलनसारिता देखकर लग रहा था कि जल्दी ही यह अरबपति हो जायेगा। करोड़पति तो वह हो ही गया है।

    दीपक अपने पंजाबी दोस्त के साथ ग्यारह साल पहले कलकत्ते से बीजिंग आया था। एक दो साल भटकने समझने के बाद दोनों ने चीनी लड़कियों से विवाह किया फिर इस दुकान को उन्हीं के नाम से किराये पर लेकर होटल खोला। तीन साल पहले इसे खरीद लिया। दोनो मित्र मिलकर इसे चला रहे हैं। दोनों के ससुराली जन इसे चलाने में सहयोग करते हैं। दीपक के साले बैरे का काम करते हैं। यह रेस्टोरेंट दिन में एक बजे से रात 9ः00 बजे तक खुलता है। अब उसका पंजाबी खत्री मित्र अलग रेस्टोरेंट खोलने जा रहा है।

    दीपक की पतली पीली सुन्दर चीनी पत्नी एक दम भारतीय गृहणी की तरह मुस्कराना और शरमाना सीख गयी है। दीपक की 6-7 वर्ष की बेटी एकदम मारवाड़ी बच्ची लग रही थी, स्वस्थ और गदबदी। रंगरूप सब पिता का।

    लंच लेकर हम ’टेंपल आफ हेवन’ देखने गये। यह एक बहुत ऊंचे व लम्बे चैडे़ आधार पर बनाया गया स्तूप है जिसमें अपेक्षा कृत कम चैड़ाई और ऊँचाई का प्रवेश द्वार बना है। अंदर कोई मूर्ति नहीं है। खाली स्थान। गाइड ने बताया कि पहले यहाॅ केवल सम्राट ही पूजा करता था। आमजन को पूजा करने का अधिकार नहीं था। अंतिम सम्राट जिन्होंने यहाॅ पूजा की उनका नाम ‘पु इ’ था। पू इ माॅचू राजवंश का अंतिम शासक थे जो मात्र दो वर्ष की उम्र में 1908 में गद्दी पर बैठे । इनका जीवन बडे़ उतार चढ़ाव में बीता। चढ़ाव क्या, उतार ही उतार में। यद्यपि इनके पास तीन हजार रानियाॅ और रखैलें थी लेकिन कोई संतान नहीं थी। कुछ दिन तक ए जापान के कब्जे में रहे फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस द्वारा बंदी बना लिए गये। चीन के रिपब्लिक बनने पर रूस ने इन्हें चीन के हवाले कर दिया। चीन की जेल में इन्होंने कैदी नम्बर 981 के रूप में कई वर्ष बिताए। जेल में ये माली का काम करते थे। सन् 1959 में चीन की आजादी की दसवीं वर्षगाॅठ के अवसर पर इन्हें मुक्त किया गया। वृद्ध और अशक्त हो जाने पर इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने इनकी सेवा के लिए एक नर्श की व्यवस्था करा दी थी। यह दारूण कथा सुनकर मन अजीब सा हो गया। कितना बदकिस्मत बादशाह था। बिलकुल मुगल खानदान के अंतिम वंशज बहादुर शाह जफर की तरह।

    यहाॅ से होटल लौटे तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। सात बजे डिनर के लिए होटल की लाबी में पहुँचना था। थक कर चूर थे। अगर अभी ऊपर कमरे में गये और विस्तर पर पड़ गये तो क्या पता डिनर के लिए नीचे उतरने की हिम्मत भी रहे या नहीं। होटल के बगल से एक गली अंदर की पुरानी बस्ती में जाती दिख रही थी। पत्नी ने कहा कि चलिए शहरी चीन का दूसरा चेहरा देख आया जाय।

    गली में थोड़ा आगे बढ़ते ही पुराने लखनऊ या बनारस की तंग गलियों का नजारा दिखने लगा। वहीं खपरैल या टीन की छत। कहीं कहीं प्लास्टिक सीट की ढलवाॅ छत जिसके ऊपर दीवार की सीध में ठीक ऊपर ईंट या पत्थर रख कर उसे आॅधी में उड़ने से बचाने का जुगाड़ किया गया था। छोटे छोटे एक मंजिले दुमंजिले घर। घर या दड़बे। छत तक पहुंचने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाॅ। मोटी मोटी भौंहो और होंठों वाले रोते मचलते मोटे गदबदे गोरे गंदे बच्चे। धूसर कपड़ों में लिपटी पीले काले दाॅतों वाली घरेलू काम निबटाती औरतें। अंगीठी या चूल्हे से उठता धुॅआ। गन्दगी और कूड़ा। बेतरतीब खड़ी साइकिलें, ठेले, दौड़ती भागती कुड़कुड़ करतीं पालतू मुर्गियाॅं। बस कुत्ते नहीं थे। कुत्ते कहीं नहीं दिखे। कुत्ते भी शायद चीनी पूर्वजों के पेट में जा चुके हैं। एकाध जगह घर के बाहर टाट या प्लास्टिक के पर्दे भी दिखे। एकाध जगह, जहाॅ तक मैं समझ सका, उठौवा पाखाना भी। या यह मेरा भ्रम होगा। किसी से पूछने जानने का कोई जारिया नहीं था। भाषा का संकट। लोग हम अजनबियों को अजीब नजरों से देख रहे थे। खासकर औरतें। अंधेरा होने लगा था। गली में बिजली के खंभे दूर दूर पर थे और उन पर जलती रोशनी बहुत मंद थी। गाइड सिन्डी की हिदायत याद आयी- अपना पर्स और मोबाइल सॅभालकर.. लगता है हम लोग धीर धीरे एकाध किमी तक अंदर चले गये थे। पत्नी तो अभी जाने क्या क्या देख लेना चाहती थीं। आगे ही आगे बढ़ी जा रही थी। किसी स्त्री से अपनी देहाती अवधी में कुछ पूंछ भी लेती और भौचक चेहरा देकर खुद ही झेंप कर आगे बढ़ जाती। मैंने आवाज देकर उन्हें रोका। फिर ठेले साइकिलों, कोयले, चैलियों के ढ़ेर और बर्तन भाड़ों से बचते बचाते होटल लौटे।

    पानी में भीगने तथा कई किमी तक दिन भर चलने के कारण बहुत थकान थी। मोजे धीरे-धीरे जूते के अंदर ही सूख गये थे। लगभग यही हाल जर्सी का था। हमने डिनर के बाद ही कमरे में जाने का निश्चय कया। डिनर बहुत फकीरी था। रोटी त्रिभुज चतुर्भुज जैसी व चीमड़ थी। सूखी सब्जी में क्या क्या था पता नहीं चल सका सिवा आलू और लोबिया जैसी पतली फली के। चावल खिचड़ी जैसा गीला। लेकिन भूख बहुत तेज थी। कुछ ज्यादा ही खा गये। कमरे में जाकर किसी तरह जूते मोजे उतारे और लुढ़क गये। सबेरे चीन की दीवार देखने जाना था। इसके लिए जल्दी उठना था। नींद बहुत गाढ़ी आयी लेकिन इसी बीच चीन के अंतिम सम्राट पु इ सपने में आये। दुबले पतले लम्बे संम्राट खाकी हाफ पैंट और सफेद सैंडो बनियान पहने थे। उनके सिर पर मुकुट बंधा था। वे नंगे पैर थे और थोड़ा झुक कर हजारे से जेलर के गमले में लगे फूलों की सिंचाई कर रहे थे। दूर से उनका चेहरा मुझे अपने बड़के मौसिया जैसा लगा । मैं उनका हाल चाल पूछने के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि फोन की घंटी घनघनाने लगी । यह सबेरे छः बजे की ‘वेक-अप’ काल थी जो थोड़ी देर तक मुझे सपने का हिस्सा ही लगती रही ।

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चीन में दूसरा दिन

    
    कल की थकान इतनी ज्यादा थी कि सोये तो ऐसे सोये कि सबेरे 6 बजे वेेकअप काल की घंटी बजी तो लगा सपने में बज रही है। पत्नी ने उठते ही उबलने के लिए केतली में पानी रख दिया। कल रेस्टोरेंट से एक स्प्राइट की दो लीटर वाली खाली बोतल लायी हैं। उबला हुआ पानी ठंडा करके इसी में भर कर रास्ते में पीने के लिए साथ ले चलेंगी। कल बस का ड्राइबर एक डालर में 750 एमएल की दो बोतलें दे रहा था। यही रेट बाहर भी होगा। यानी 61 रूपये में डेढ़ लीटर पानी। मेरी मानसिकता वाले व्यकित के लिए यह बहुत मंहगा लग रहा है। दरिद्र मानसिकता मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली।

चीन की दीवार के बेस कैम्प पैर


चीन की दीवार पर

    
    रास्ते में पड़ने वाली नग तराशने की एक फैक्टरी और मोती बनाने वाली एक इकाई को देखते हुए आज चीन की दीवार देखने जाना है। चीन की दीवार के लिए मेरे मन में दुर्निवार आकर्षण है। किशोरावस्था में एक पत्रिका में उसके बारे में पढ़ा था- चिन नाम के बादशाह ने 221 ई. पूर्व मंगोल आक्रमण से देश को बचाने के लिए इस दीवार का निर्माण शुरू कराया था। फिर अगले, फिर अगले राजा, इसका निर्माण कार्य निरन्तर कराते रहे अगले हजार बारह सौ साल तक। तब नहीं सोचा था कि कभी इसे साक्षात अपनी आखों से देख सकूगा। कहते हैं यह ग्यारहवी शताब्दी तक बनती रही। 6 हजार किमी से ज्यादा लम्बी। यानी पचास साठ पीढि़यां पैदा होती रहीं, बनाती रहीं और मरती रहीं। इस बीच राजवंश बदल गये लेकिन निर्माण नहीं रूका। एक अपने यहां का इतिहास है कि एक ने बनाया तो दूसरे ने तोड़ा और लूटा। बनवाया भी कुछ तो पुल और सड़क नहीं, महल या मंदिर बनवाया। हमारे यहां आदमी के हाथ में परलोक रूपी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया गया कि पैदा होने से मरने तक उसी को बजाने में मंगन रहो। ब्रहम सत्यं जगत मिथ्या। जो सच है, नजरों के सामने है उसे मिथ्या मानते रहे और जो मिथ्या है, काल्पनिक है उसे सच। मिथ्या सच के सिर पर इस तरह चढ़कर बैठ गया कि सच का दम घुट गया। वह आज तक मिथ्या के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया।
   
    नास्ता करके 8:30 बजे बस में सवार हो जाना है। कल की चिल्लपों का असर यह हुआ कि आज नास्ते की गुणवत्ता सुधर गयी। उसमें कार्नफ्लेस, दूध, केला, आमलेट और अंगूर तथा संतरे का जूस शामिल हो गया। नास्ता करते करते गाइड सिन्डी अपनी झंडी लिए हाजिर हो गयी।
    
    पत्नी जल्दी-जल्दी नास्ता करके बस की खोज में निकल गयीं। पिछली सारी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने देखा कि वे बस में सबसे आगे की सीट हथियाती हैं। मैं पूछता हूँ- सबसे आगे बैठने की इतनी ललक क्यों? बगल से भी सब कुछ दिखायी देता है। आगे बैठने पर तो आपका ज्यादा समय सामने सड़क निहारने में चला जाता है। फिर, दूसरे लोग भी तो आगे की सीट पर बैठने की इच्छा रखते होंगे। उन्हें भी मौका मिलना चाहिए। पर वे नहीं मानती। उनका तर्क है कि जो पहले आये वह अपनी मनपसंद सीट पर बैठे। अमेरिका यात्रा में 'स्टेचू आफ लिबर्टी देखने जाने के दौरान बोट के दाहिने हाथ की सीट पर बैठने को लेकर उनकी एक लम्बी चौड़ी लकदक गुजराती महिला से लड़ाई हो गयी। दरअसल बोट पर सवार होने के दौरान टूर मैनेजर मिस्टर सावक ने ब्रीफ कर दिया कि फोटोग्राफी के लिहाज से खुली बोट के दाहिने भाग के किनारे की सीटें उपयुक्त रहेंगी। बस सब दाहिने किनारे की ओर भागे। मैं तो दूसरे लोगों के हाव भाव, कपड़े लत्ते, रोब रूतबा देख कर किनारा कर लेता हूँ लेकिन यही चीजें उन्हें भड़का देती हैं। कुछ गलत देखती हैं या उन्हें लगता है कि कोई उन्हें दबा रहा है या धौंस में लेने की कोशिश कर रहा है तो हत्थे से उखड़ जाती हैं।

    मोती बनाने वाली इकाई का शो रूम दस हजार वर्ग फीट से कम क्या होगा। मोती जड़े गहनों के शो केस, मालायें, अंगूठियां, नेकलेस और भी जाने क्या क्या। करोड़ो का माल। प्रवेश द्वार पर ही बडे़ बड़े जार रखे थे। पानी भरे इन जारों की पेंदी में बड़ी बड़ी सीपियां, बुलबुले छोड़ती हुई। एक आदमी एक बाल्टी लेकर आया और इनमें से 10-12 सीपियां निकाल कर बाल्टी में डाल लिया। फिर एक लड़की आई। उसने आवाज देकर सबको पास बुलाया और मोती निर्माण की प्रक्रिया बताने लगी। एक सीप को उठा कर उसका मुँह चाकू से फैलाया और उसके पेट में सिथत अंडे की सफेदी जैसी तरल बूंद को दिखाते हुए बताया- यही बूंद निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा मोती है। उसने कई सीपियों को फाड़कर निर्माण के अलग-अलग स्टेज दिखाये फिर फाड़ी गई सीपियों को उसी बाल्टी में फेक कर सबको लेकर हाल में चल गयी। मैं उन फाड़कर फेंकी गयी सीपियों को देखता रहा। अभी कुछ क्षण पहले तक उनमें जीवन था। अब वे कटी फटी दशा में कूड़े के ढेर की तरह पड़ी थीं। मैं सिहर गया। क्या सिर्फ हम पर्यटकों को निर्माण की प्रक्रिया दिखाने के लिए इन्हें फाड़ कर फेंक दिया गया। आठ दस अर्धनिर्मित मोती फेंक दिए। इतना नुकशान। यह सच नहीं हो सकता। पर सीपियों की जान चली गयी यह तो प्रत्यक्ष था। मैंने मन को समझाया- जरूर कुछ नजर का धोखा होगा।

    वहां से चलकर हम नग बनाने वाली एक फैक्टरी में आये। सैकड़ों शो केस। बिजली की रोशनी में जगमगाते। सैकड़ों लाफिंग बुद्धा। एक किनारे लगी हल्के हरे पत्थर की चटटाने। मुझे एक कोने में एक साधारण सी मेज पर बडे़ खरबूजे के आकार की गोल हरी आकृति ने आकृष्ट किया। इस गोले में चारों तरफ एक डेढ़ सेमी व्यास के दस बारह छेद बने थे। इन छेदों से गोले के अंदर बना एक और गोला दिख रहा था। पहले से पूरी तरह स्वतंत्र और आसानी से चलायमान। उसकी सतह पर भी उसी तरह छेद थे और उन छेदों के अन्दर एक अन्य गोला दिख रहा था। एक के अंदर एक कुल चार गोले और सभी निर्बाध गतिशील। मैं आष्चर्य में पड़ गया। कैसे कारीगर ने एक बडे़ पत्थर को तराश कर इस तरह एक के अंदर एक गोले बनाए? लेकिन शिल्पी कौन है, यह कहीं दर्ज नहीं था। सेल्सगर्ल ने बताया कि देहात के कारीगर बना कर दे जाते हैं बिकने पर उन्हें इसका मूल्य दे दिया जायेगा। पता नहीं यह कब बिकेगा और कब इसका कितना मूल्य उस बेचारे को मिल पायेगा। सेल्सगर्ल ने कहा कि हो सकता है महीने भर में बिक जाये। हो सकता है साल भर लग जाये।

    मामूली से दिखने वाले पत्थरों की आभा तराशने से निखर गयी थी। वे निर्जीव माडलों के गले में शोभायमान थे, हजार, डेढ़ हजार डालर के प्राइस टैग के साथ। चीन में अब विदेशी कम्पनियों को भी निर्माण का लायसेंस दिया जा रहा है। यह विदेषी कम्पनी ही थी। पहले ऐसा नहीं होता था।

    यहां से चीन की दीवार करीब बीस किमी दूर है। थोड़ी दूर चलते ही पहाड़ की चोटी पर उसकी झलक दिखने लगी। दूर तक किसी ड्रैगन की तरह ही बलखाती पसरी हुई। खड़ी चढ़ाई वाले नुकीले ऊँचे पहाड़ों के सिर पर चढ़ कर बैठी थी यह। जैसे जैसे पास पहुंचते गये रोमांच बढ़ता गया। हमारी बस जिस सड़क से होकर गुजर रही थी उसके दोनों ओर पहाड़ की श्रृंखला फैली थी और उन पर चढ़ी दिख रही थी यह दीवार। इस पर भी, उस पर भी। बेस तक पहुंच कर बस रूकी। हम नीचे उतरे। देखा ठीक बायीं तरफ के पहाड़ पर चींटी की तरह नीचे से ऊपर चोटी की ओर बीस फीट की चौड़ाई में खड़ी चढ़ाई की सीढ़ियों पर रेंगती भीड़। बाप रे! इतनी खड़ी चढ़ाई पर कैसे इतनी ऊँची चौड़ी दीवार बना दिया इन लोगों ने। वह भी ढ़ाई हजार साल पहले। कैसे चढ़ाये होंगे निर्माण सामग्री। आगे टिकट घर के पास से बायीं तरफ भी एक दीवार जा रही थी। गाइड ने बताया कि यह अपेक्षाकृत कम चढ़ाई वाली है। इस पर वह जो तीसरा ब्लाक दिख रहा है वहाँ तक तो यूरोपियन ही चढ़ पाते हैं। एशियाई मूल के लोग दूसरे ब्लाक तक चढ़ते हैं। चढ़ने को तो आप में से भी कुछ लोग हो सकता है चढ़ जायें लेकिन वापस लौटना कठिन हो जायेगा। जांघे भर आयेंगी। पैर कांपने लगेंगे। चढ़ने से ज्यादा उतरना पहाड़ हो जायेगा। जिन्हें हार्ट की समस्या हो या हाई ब्लड प्रेसर हो, बेहतर होगा वे जोखिम न उठायें।

    पत्नी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि केवल यूरोपियन ही इतने सक्षम माने जा रहे हैं जो तीसरे ब्लाक तक चढ़ सकते हैं। उन्होंने मेरा हाथ दबाते हुए कहा- मैं भी तीसरे ब्लाक तक चढ़ूंगी।

    -तुम मंगोलिया तक क्यों नहीं चली जातीं, तीसरा चौथा सब पार करते हुए। मैंने नाराजगी दिखायी- ब्लड पे्रशर की दवा खाती हो और आगे-आगे कूदती रहती हो।

    -कूदूंगी, कूदूंगी। मुझे डराओ नहीं। खाने पीने का झोला और पानी लिए हुए, मेरा हाथ छोड़ वे तीन चार कदम आगे बढ़ गयीं। कैमरा और वीडियो संभालते हुए मैं। पीछे पीछे चला। दाहिने हाथ की चढ़ार्इ वास्तव में बायें की तुलना में समतल थी। हमने यही राह पकड़ी।

    क्या तो दमदार पत्थरों को काट कर बनायी गयी है यह दीवार। दीवार भी और सड़क भी। वह भी सीढ़ीदार। किनारे किनारे पत्थर की ही रेलिंग। 4-5 इंच से लेकर 8-10 इंच तक के स्टेप। डेढ़-दो सौ सीढ़ी के बाद बगल में विश्राम के लिए बनाया गया कमरा और करीब पौन किमी पर एक बड़ा ब्लाक या हाल जिसमें सौ डेढ़ सौ सैनिक आसानी से विश्राम कर सकते हैं। (सही दूरी और नाप अब आप गूगल पर देख सकते हैं।) रेलिंग पकड़ कर चढ़ने उतरने वाले ज्यादा रहते हैं इसलिए रेलिंग से सटी सीढि़यां कहीं कहीं घिस गयी हैं। बाकी अंगद के पांव की तरह जस की तस। कभी इन पर घुड़सवार पहरेदार सैनिक चला करते थे। बिना इन पर चढे़ इनकी भव्यता और भयावहता का अनुमान लगाना संभव नहीं। कुछ उतरे आ रहे हैं, कुछ चढ़े जा रहे हैं, कुछ आसपास की रेलिंग पर अपना नाम अंकित करने पर लगे हैं। रूकते रूकाते लाग डाट में हम दो ब्लाक तक चढ़ गये। थकान आ गयी। मैं एक समतल रेलिंग के पत्थर पर बैठ गया। फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी करने लगा। पत्नी कुछ देर तक पोज देती रहीं फिर धीरे धीरे चढ़ कर पचास साठ सीढ़ी ऊपर गयीं। मैंने सावधान किया- मदद के लिए पुकारोगी तो नहीं आ सकूँगा। लौट आओ।

    -अकेली स्त्री को मददगारों की क्या कमी। कहकर वे हंसी और आगे बढ़ने लगीं। अगले मोड़ पर आंखों से ओझल हो गयीं। तेज गुस्सा आया। लेकिन क्या फायदा जब गुस्सा झेलने वाला ही कोर्इ नहीं है। सोचा मैं भी चलूं पर हिम्मत न हुई। कहीं ऊपर ही न रह जाऊं। अंतत: करीब आधे घंटे बाद वे वापस लौटती दिखीं। साथ में दो अन्य विदेशी पहनावे वाली महिलायें। पता चला वे दोनों हरियाणा मूल की हैं और तीस पैंतीस साल से कनाडा में बस गयी हैं। वापसी में सचमुच पैर कांप रहे थें। बेस पर बने एक प्लेटफार्म पर खडे़ होकर लोग फोटो खिंचा रहे थे, यादगार के लिए। किसी भी झुंड में किसी के भी साथ। नाम, पता, फोन नम्बर लिखा दीजिए। पैसा जमा कर दीजिए। फोटो आप के पते पर पहुंच जायेगा। हमने भी फोटो खिंचाई। बस में पहुंचने वाले हम दोनों अंतिम यात्री थे।

    यहां से चल कर एक विशाल रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए रूके। बाहर टूरिस्ट बसों की लाइन लगी थी। कई मंजिल का रेस्टोरेंट। हर मंजिल पर 60-70 बड़ी मेजें। खाने के साथ बियर मुफ्त थी। पानी नहीं मिलेगा। स्प्राइट, कोकाकोला या बियर। हर प्रकार का खाना। हर प्रकार के खाने वाले। एशियाई, यूरोपियन, अफ्रीकन। विभिन्न पहनावे, विभिन्न बोलियां।

    यहां से हम समर पैलेस देखने गये। चीन के सम्राट की गर्मी के महीने की अराम गाह। लम्बी चौड़ी कुनमिंग लेक के किनारे लागिविटी हिल पर बना पैलेस। कई सारे भवन। बारहवीं सदी में बना। यूरोपियन फौजों ने रौंदा जलाया। फिर बना। गर्मी के महीने में राजा 'फारबिडेन सिटी का महल छोड़कर अपनी सारी रानियों और 'कान्क्यूबाइन माने रखैलों के साथ यहां आ जाता था। यहां के कुछ महल बहुत खास हैं, जैसे- लांगिविटी पैलेस, ट्रानिक्वलिटी पैलेस, वीगर पैलेस। इनके मूल चीनी नाम तो जो होंगे सो होंगे। हिन्दी अनुवाद में हम दीर्घायु भवन कह सकते हैं जिसमें रहने से आयु बढ़ जाती है। बुढ़ापे को दूर भगाने का इंतजाम। प्रशानित भवन, चिन्ता उद्विग्नता या भय को दूर भगाने वाला। और पौरूष भवन, जिसमें रहने से पौरूष बढे़ या कम से कम जितना पौरूष बचा रह गया हो वह कायम रहे। भाई, पुरूष तभी तक पुरूष है जब तक उसका पौरूष बरकरार हैं। पौरूष गया तो वह कूडे़दान में फेंकने की चीज हो गया। मैंने एक बार टी.वी. पर देखा था, एक युवा शेरनी गुर्रा गुर्रा कर बूढे़ शेर को भगा रही थी। बेचारा कैसे पूंछ दबाए, अपमान के बोझ से सिर झुकाए, थके कदमों से चला जा रहा था। हारे हुए राजा की तरह पड़ रहे थे उसके कदम। विशाल कुनमिंग झील में एक भी चिडि़या नहीं थी। किनारे आठ दस पाली हुई बत्तखें डक्क डक्क कर रहीं थीं।

    वहां से लौटते हुए हम ओलमिपक स्टेडियम पर रूके। यहीं पर 2008 के ओलमिपक खेल हुए थे। लगभग एक किमी लम्बे रास्ते पर ऊंचे ऊंचे खम्बों पर नियान लाइट चमक रही थी। विशाल स्पाती ढांचा बीच मैदान में खड़ा था। हजारों पर्यटक टहल रहे थे। देर तक फोटोग्राफी करने के बाद हम डिनर के लिए उत्सव होटल आये। सवेरे जियांग के लिए बारह बजे की फ्लाइट पकड़नी थी इसलिए इत्मीनान से उठे। नहाये धोए नास्ता किये। 9:30 पर होटल से निकले। आज सिन्डी से विदाई का दिन था। वह हम लोगों को लेकर एअरपोर्ट पर आयी। पैक्ड लंच दिया। चेक इन कराया और कहा सुना माफ की स्टाइल में किसी सम्भावित भूल के लिए सारी कह कर विदा ली। लेकिन उसकी आंखों में कोई तरलता नहीं दिखी। सब कुछ रस्मी रस्मी। बार बार मिलने और बिछुड़ने की प्रक्रिया में ऐसा हो ही जाता होगा।

    पत्नी द्वारा पर्स में सेब काटने के लिए छिपाकर रखा गया छोटा चाकू सिक्यूरिटी चेक में निकलवाया गया तो दुखी हो गयीं। मान लिया कि उसे लगेज में न डाल कर बेवकूफी किया। करीब फर्लांग भर आगे आ गयी थीं तो सिक्यूरिटी चेक की लड़की ने पीछे से आकर उनका पर्स खींचा। अब क्या गड़बड़ हो गयी? लेकिन कोई गड़बड़ नहीं थी। वह सिक्यूरिटी चेक के दौरान छूट गया कैमरे का कवर देने आयी थी। बाप रे! इतनी दूर तक दौड़कर कवर देने आयी। और इतनी भीड़ में कैसे पहचाना कि यह कवर हमने छोड़ा था? थैक्यू भी उसी ने कहा। हम तो मूक खडे़ रह गये।

    चाइनीज एअर होस्टेस देखकर एक बार फिर मन मुदित हुआ। साढे़ पांच फीट से कोई कम नहीं। गोरी नहीं गुलाबी। ऊंची नासिका और ऊंची सैंडिल वाली। कहां से छांट छांट कर भर्ती किया है इन चीनियों ने भाई। प्लेन सम पर आया तो हमने अपना पैक्ड लंच खोला। चावल और रायता। साथ में भरवां पराठा। फिर फ्लाइट का लंच भी आ गया। कुछ खाया कुछ छोड़ा।

    जियांग एअरपोर्ट पर सोफिया अपनी सौम्य मुस्कराहट के साथ मौजूद थी। सिन्डी 40 की थी लेकिन यह तीस से ज्यादा नहीं होगी। भोली सूरत, बिना मेकअप का चेहरा और राख के रंग वाली पैंट सर्ट पहने मझोले कद की धीमे धीमे मुस्कराकर (और शायद बहुत हल्की सी तुतलाहट के साथ) बोलने वाली सोफिया ने मुग्ध किया। न कोई ईगो, न कोई आडम्बर, न कोई दिखावा। बातचीत से पढ़ी लिखी लगी। बस के चलने के साथ उसने जिआंग शहर का परिचय देना शुरू किया। बताया की पहले जियांग ही चीन की राजधानी था। पेकिंग, जिंयाग ल्हासा, काठमांडू और दिल्ली एक सीधी रेखा में हैं। यहां 26 सम्राटों की कब्रें हैं। यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहां चावल की तुलना में गेहूँ ज्यादा पैदा होता है जिससे 108 प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। यह इलाका ब्यूटीफुल लेडीज और बहादुर सिपाही पैदा करने के लिए जाना जाता है। हर बहादुर सिपाही को एक ब्यूटीफुल वाइफ चाहिए ही चाहिए। ब्यूटीफूल पर उसका खास जोर था। उसने बताया कि शहर में दो मार्केट हैं। 'ईस्ट एन्ड और 'वेस्ट एन्ड। एक शापिंग के लिए और दूसरा 'ब्यूटीफुल लेडीज को देखने के लिए। उसने बताया कि आस पास के इलाके में जो लोग पैसे वाले हो जाते हैं वे पहले मार्केट में जाकर ब्यूटीफुल लेडीज या गर्ल पसंद करते हैं। उससे उसकी च्वाइस पूछते हैं। वह कहती है कि मुझे फला अपार्टमेंट का फलां मंजिल का फ्लैट पसंद है। वह पैसे वाला उस फ्लैट को खरीद कर उसकी चाभी उस 'गर्ल को थमा देता है। तब वह उस पैसे वाले के साथ चली जाती है। चाहे 'वाइफ के रूप में या 'मिस्ट्रेस के रूप में। सुन कर बड़ा अच्छा लगा। क्या व्यवस्था है। यहीं रह जाने का मन हो रहा है। मैंने पत्नी की ओर देखा। वे बोलीं- रह जाइये। ऐसी जगह फिर न मिलेगी।

    क्या तो मधु की तरह मीटी आवाज और सपना दिखाने वाली आंखे हैं सोफिया की? नाक कान एकदम सादे। न कोई छेद न कोई आभूषण। मुझे लगा कि यदि इसको गलती से आभूषण पहना दिए गये तो इसकी सुन्दरता घट जायेगी। रात का डिनर 'दिल्ली दरबार नाम के रेस्टोरेंट में था। वहां ले जाने के लिए मिस्टर राक नाम का एक अन्य गाइड आया। रास्ते में उसने बताया कि जिस इलाके में कल आपको ले चलेंगे वहां एक जगह ऐसी है जहां आज भी शादी के पहले वर वधू एक दूसरे को नहीं देखते। उनके मां बाप ही यह रिस्ता पसंद और तय करते हैं। जैसा कि कुछ समय पहले आपके इंडिया में होता था। उसने बताया कि यहां के पुरूष अपनी सित्रयों के पैर को बांधने के लिए एक खास तरह की पैकिंग का इस्तेमाल करते हैं। यह मान्यता है कि स्त्री के पैरों को बांध कर रखने से ही कोर्इ पुरूष उस स्त्री को काबू में रख सकता है अन्यथा स्त्री को काबू में रखना बहुत कठिन। वह किसी के काबू में रहने वाली शै ही नहीं है। एक ही उपाय है कि उसके पैरों को बांध कर रखो। जो लड़की अपने पैरों में यह बंधन नहीं स्वीकारती उसकी शादी होना मुशिकल। कौन पसंद करने का जोखिम लेगा ऐसी बन्धनहीन स्त्री को। और भी बहुत सी लन्तरानियां सुनाई उसने रेस्टोरेंट पहुंचने तक। पता नहीं कितनी सच कितनी झूठ। उसकी आवाज उसके शरीर की तरह ही मोटी और भौय भांय करने वाली थी। इसलिए बहुत कुछ समझने से रह गया। लेकिन जिस वजह से मैंने बीच में उसकी चर्चा छेड़ी उसका कारण दूसरा है। पता चला कि यह राक सोफिया का मंगेतर है। हे भगवान! तेरा करिश्मा तू ही जाने। कहां भों भों करके बोलने वाला यह मोटा बेडौल राक और कहां कोयल सी कूकने वाली चिकनी तन्वंगी सोफिया।

    मेरे सहकर्मी मोहम्मद अहद एक शेर सुनाते थे-

जाख की चोंच में अंगूर, खुदा की कुदरत
पहलुए हूर में लंगूर खुदा की कुदरत।


जाख का मतलब पूछने पर उन्होंने बताया था- कौआ।
अब आज आगे और कुछ न लिखा जायेगा।


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